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________________ रत्नत्रय का तृतीय रत्ल कितना मौलिक, कितना मार्मिक? है। व्यक्ति स्वयं यथार्थ दृष्टिकोण के माध्यम से सत्य तत्त्व का साक्षात्कार करे या आप्त वचनों पर दृढ़ आस्था रखकर श्रद्धा के द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार करे-कोई अन्तर नहीं पड़ता। मुख्य अभिप्राय यह है कि ज्ञान और चारित्र का पल्लू आपस में पूरी सात्विकता से बंधा रहना चाहिये। इनके बीच में शंका का कोई स्थान न रहे, बल्कि विवेक और विश्वास के साथ साधना का संकल्प सुदृढ़तर होता रहे। दृष्टि सम्यक् रहे तभी ज्ञान और चारित्र भी सम्यक् बने रहते हैं। त्रिविध साधना मार्ग के रूप में ज्ञान का आधारगत महत्त्व है। जानने पर ही करने का शुभारंभ हो सकता है। जानने के बिना करना तो मात्र अंधापन है। एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करनी है तो उसके मार्ग की जानकारी जरूरी है। उसके बाद ही यात्रा का क्रम शुरू किया जा सकता है। कैसा भी छोटा-बड़ा काम हो, वह काम तभी कामयाबी से किया जा सकेगा, जब उसकी पूरी-पूरी जानकारी पहले ले ली जाए। जीवन में भी आचरण का अभ्यास करना हो, व्यवहार विधि निश्चित करनी हो अथवा चारित्र या आचार की साधना करनी हो तो पहले तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेना आवश्यक है। यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति का प्रथम चरण है जिज्ञासा- नया नया और अधिकाधिक जानने की अभिलाषा। यह अभिलाषा स्रोत रूप है। जिज्ञासा के मार्ग में सन्देह से भी सामना होता है, किन्तु संदेह स्वाभाविक है तो बुरा नहीं। जो संशय को जानता है वह सम्यक् रूप से संसार के स्वरूप को जान लेता है। ज्ञान से ही हेय (त्यागने लायक), उपादेय (ग्रहण करने लायक) तथ ज्ञेय (जानने लायक) तत्त्वों की पहिचान होती है और ज्ञान की उसी धारा से ज्ञाता ज्ञेय का ज्ञान और हेय का परित्याग कर देता है। परन्तु जो संशय को नहीं जानता है, वह संसार के स्वरूप को भी नहीं जानता है (आचारांग, 1-5-1)। जब तक किसी पदार्थ के विषय में संशय नहीं होता तब तक उसके सम्बन्ध में ज्ञान के नये-नये उन्मेष भी नहीं खुलते हैं। संशय का सही अर्थ है- वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानने की इच्छा और ऐसा जिज्ञासामूलक संशय मनुष्य की ज्ञान वृद्धि का सबसे बड़ा कारण बनता है। संशय अर्थगत और अनर्थगत दोनों प्रकार का हो सकता है, किन्तु ज्ञान के विकास की यात्रा दोनों प्रकार के संशयों के आधार पर आरम्भ होती है। इसी से ज्ञेय-उपादेय की जानकारी और हेय की त्याग करने प्रवृत्ति पनपती है। संसार का प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है और उस अनन्त का ज्ञान अनन्त ही कर सकता है। इसका आशय यही है कि जिसने किसी वस्तु को सम्पूर्ण रूप से जान लिया है, वह अन्य सभी वस्तुओं को सम्पूर्ण रूप से जान सकता है (जे एगं जाणइ, से सव्वे जाणइः जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइः आचारांग, 1-3-4)। केवलज्ञान के रूप में ज्ञान का सम्पूर्ण विकास सम्पन्न होता है और केवलज्ञान अनन्त स्वरूपी होता है। जानने की शक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति ही मानव जीवन का अन्तिम साध्य है। रत्न त्रय में तीसरे रत्न चारित्र का मौलिक तथा मार्मिक महत्त्व है, क्योंकि साधना की सफलता का यही निर्णायक अंग है। चारित्र या चरित्र का उद्देश्य होता है जीवन को बन्धन-मुक्त बनाना-वह बन्धन चाहे कैसा भी हो, उससे मुक्ति आवश्यक होती है। सम्यक् चारित्र का निश्चयात्मक अर्थ है 143
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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