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सुचरित्रम्
कहा है। रत्न त्रय का स्पष्ट उल्लेख पहली बार आचार्य उमास्वाति ने किया है और अपने ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र के पहले अध्याय के पहले सूत्र के रूप में इस मोक्ष मार्ग का उल्लेख किया है- 'सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्ताणि मोक्षमार्गः', अर्थातः सम्यग् दर्शन, ज्ञान तथा चारित्र- ये तीनों मिल कर मोक्ष का साधन बनते हैं। यों आचारांग में इस त्रिविध साधना मार्ग के लिये सीधे-सीधे कहीं एक साथ दर्शन, ज्ञान और चारित्र शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। एक सूत्र के माध्यम से अहिंसा, प्रज्ञा और समाधि के रूप में त्रिविध साधना मार्ग का विधान है। (आचारांग 1-6-1)।
त्रिविध साधना मार्ग का उल्लेख अन्य धर्म दर्शनों में भी मिलता है। बौद्ध दर्शन में शील, समाधि और प्रज्ञा रूप त्रिविध साधना मार्ग बताया गया है। गीता में भी ज्ञान, भक्ति (श्रद्धा) और कर्म के रूप में त्रिविध साधना मार्ग का वर्णन हुआ है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी मानवीय चेतना के तीन पक्षों का ही पूर्ण विकास अनन्त ज्ञान-दर्शन अनन्त सौख्य (आनन्द) और अनन्त वीर्य (अनन्त शक्ति) के रूप में उल्लिखित हुआ है। सामान्यतया मुक्ति के दो साधन भी कहे गये हैं- 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः' अर्थात् ज्ञान और क्रिया से मोक्ष प्राप्त होता है। सूत्रकृतांग सूत्र में 'अहिंसु विज्जा चरणं पमोक्खो' (1-12-11) भी कहा गया है जिस का अर्थ है कि विद्या और आचरण मोक्ष के साधन हैं।
इस प्रकार तीन रत्न माने या दो- आशय एक ही है। ज्ञान और चारित्र मुख्य है ही और दर्शन दोनों की कडी है। दर्शन का अर्थ होता है दृष्टि या विजन, जो सत्य तत्त्व का साक्षात्कार कराता है या श्रद्धा के सूत्र से ज्ञान और चारित्र को जोड़ता है। कुछ जाना जाए और उस जानकारी पर विश्वास न हो तो उस जानकारी को आचरण में उतार पाना मुमकिन नहीं होता। ज्ञान किया है और मन ने उसका मान नहीं किया तो वह चरित्र का अंग कैसे बन सकेगा? आस्था के बिना ज्ञान पर आचरण संभव नहीं और सच तो यह है कि ये तीनों तत्त्व अलग-अलग नहीं है- तीनों एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। तीनों में से किसी एक तत्त्व की भी उपेक्षा फलदायी नहीं होगी। सबसे पहले सम्यक् शब्द का प्रयोग किया गया है कि तीनों कार्य सही होने चाहिए अर्थात सही जानो. सही मानो और सही करो। न लंगडा मंजिल पा सकेगा और न अंधा- दोनों को विश्वासपूर्वक सहयोग करना होगा, तभी मंजिल मिलने की आशा जागृत हो सकेगी। __ इस प्रकार की त्रिविध साधना न केवल चरम मोक्ष के लिये आवश्यक है, अपितु, जीवन की गति को प्रगतिमय बनाये रखने के लिये भी यह त्रिविध साधना पद्धति उपयोगी एवं लाभदायक है। जानो, मानो और करो की श्रृंखला में 'करो' का मौलिक महत्त्व
त्रिविध साधना पद्धति के उपरोक्त तीनों साधन एक प्रकार से संयुक्त श्रृंखला के रूप में है और तीनों के सफल संयोग से लक्ष्य प्राप्ति संभव हो सकती है किन्तु एक-एक साधन की महत्ता की अलग से मीमांसा भी इस कारण आवश्यक है कि तीनों का तालमेल सम्यक् रीति से बिठाया जा सके।
जानो, मानो और करो की श्रृंखला में तीनों के पहले सम्यक् विशेषण अनिवार्य है। मिथ्या ज्ञान या दर्शन या चारित्र महत्त्वहीन हैं। सम्यक् का अर्थ है यथार्थ । ज्ञान यथार्थ होना चाहिये और उसी रूप में दर्शन और चारित्र भी यथार्थ होने चाहिये। सत्य के प्रति दृढ़ निष्ठा या प्रतीति ही सम्यक्त्व का आधार
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