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________________ रत्नत्रय का ततीय रत्ल कितना मौलिक, कितना मार्मिक? पुत्रों के शिक्षा गुरु थे द्रोणाचार्य। अपने आश्रम में वे उन राजपुत्रों को बहु आयामी शिक्षा प्रदान कर रहे थे। एक दिन सबको यह पाठ याद करने के लिये दिया गया कि 'सत्यं वद' (सत्य बोलो)। इतना छोटा सा पाठ और तीक्ष्णबुद्धि वाले राजकुमार-कोई कठिनाई नहीं थी सब के लिये सिवाय एक राजकुमार के। दूसरे दिन सभी ने अपना याद किया हुआ पाठ सुना दिया। परन्तु युधिष्ठिर चुप रहा। आचार्य ने कुछ रोष के साथ पूछा- क्या तुम्हें इतना-सा पाठ भी याद नहीं हुआ। युधिष्ठिर ने अपना सिर हिला दिया- अभी तक मुझे यह पाठ याद नहीं हो पाया है, गुरुदेव! प्रतिदिन इनकार करते-करते आखिर दस-पन्द्रह दिन बाद युधिष्ठिर ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया- 'गुरुदेव! अब मुझे पाठ भलीभाँति याद हो गया है।' द्रोणाचार्य ने सन्तोष की साँस ली, लेकिन वे अपनी चिन्ता को छिपा नहीं सके, पूछ बैठे- 'युधिष्ठिर! इतने छोटे से पाठ को याद करने में तुम्हें इतना समय लगा?' युधिष्ठिर ने कहा- 'गुरुदेव! सत्य बोलना सरल कार्य नहीं। बिना आचरण के एक बात जान लेना अलग बात है, किन्तु मेरे विचार में कोई भी पाठ तभी याद किया माना जा सकता है जब उस पर सफल आचरण करके आश्वस्त हो जावें। अब मैंने अभ्यास कर लिया है और आश्वस्त भी हो गया हूँ कि मैं अपने जीवन में सदा सत्य ही बोलूंगा। मैंने सत्य बोलने को अपने ज्ञान तथा आचरण दोनों में समाविष्ट कर लिया है।' ___यह कथा ज्ञान और चारित्र के अन्योन्याश्रित सम्बन्ध पर गहरा प्रकाश डालती है और स्पष्ट संकेत देती है कि दोनों में से केवल एक तत्त्व का समर्थन जीवन को सार्थक नहीं बना सकता है। तीन रत्नों को पहिचानिये और उनका मोल आंकिये! ___ भारत के अध्यात्मवादी दर्शनों ने, जिनमें जैन दर्शन भी सम्मिलित है, जीवन के अन्तिम लक्ष्य के रूप में मोक्ष को मान्यता दी है। सामान्य रूप से मोक्ष या मुक्ति का नाम है किसी भी अनचाहे बन्धन को तोड़ कर स्वतंत्र हो जाना। बन्धन का विपर्यय मोक्ष है। धर्म दर्शन जिस मोक्ष की बात करते हैं, वह एक प्रकार से अन्तिम मोक्ष है, क्योंकि सबसे बड़ा बन्धन यह शरीर माना गया है जो जन्म-जन्मान्तर में बना रहता है। इस बन्धन को तोड़ने का अर्थ है जन्म-जन्मान्तर का समाप्त हो जाना तथा आत्मा का शुद्ध आत्म स्वरूप में अवस्थित हो जाना। यों सामान्य जीवन में भी भाँति-भाँति के बन्धन जीवनी शक्ति को जकड़ते हैं, जिनसे मुक्ति पाने पर भी भीतरी आनन्द का अनुभव होता है। इस दृष्टि से मोक्ष या मुक्ति की अभिलाषा पग-पग पर और अंतिम रूप से भी सभी को रहती है। मनुष्य बन्धन को सदा ही कष्टकारक मानता है और उससे मुक्ति को आनन्ददायक। आचार्य उमास्वाति ने मोक्ष के स्वरूप को अति संक्षेप में बताया है कि बंध के कारणों का अभाव होने पर जो आत्मिक विकास परिपूर्ण हो जाता है, वही मोक्ष है। दूसरे शब्दों में ज्ञान और वीतराग भाव की पराकाष्ठा ही मोक्ष है। (तत्त्वार्थ सूत्र-गुजराती पृष्ठ 4) मोक्ष की प्राप्ति के लिये ही त्रिविध साधना पद्धति का विधान है। जैन दर्शन में भी त्रिविध साधना मार्ग का विशिष्ट एवं गौरवपूर्ण स्थान है। इस साधना का मूल आधार सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र रूप रत्न त्रय है। ये तीन रत्न हैं, जो मोक्ष पथ को प्रकाशित करते हैं अर्थात् साधक इन तीन सिद्धांतों की सम्यक् साधना करके मोक्षगामी हो सकता है। रत्नत्रय की एकता को ही मोक्ष मार्ग 141
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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