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________________ सुचरित्रम् । वृक्ष के नीचे बैठा अंधा व्यक्ति हताशा में डूबा हुआ था तथा विचारों से अनिश्चय एवं असमंजस की स्थिति से गुजर रहा था, तभी उसे अपने पास आती हुई पैरों की आहट का आभास हुआ। कौन हो सकता है इस समय, जो उसके समीप आ रहा है। आने का यह तो साफ मतलब निकाला जा सकता है कि आने वाला दृष्टिहीन तो नहीं है। देख सकता है, तभी तो चला आ रहा है। हाँ, उसके मन में यह शंका जरूर उठी कि आने वाले के पैरों की आवाज शायद समताल नहीं है। पैरों के पड़ने की जो आवाज आ रही है, वह लड़खड़ाने जैसी आवाज है। ऐसा क्या है- वह अनुमान लगाने लगा। __ 'भाई! वृक्ष के नीचे अकेले बैठे-बैठे क्या कर रहो हो? किसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे हो क्या? कहीं जाने का विचार है?' इतने सारे प्रश्न एक साथ सुन कर अंधे व्यक्ति का उत्साह जगा आ. वह बोला- 'भाई ! तुम देख रहे होओगे कि मैं दृष्टिहीन हूँ। अकेले इसलिये बैठा हूँ कि कोई संगीसाथी मिल जाए और मैं अपनी मंजिल तक पहुँच जाऊँ। ऐसे किसी साथी की ही प्रतीक्षा है, मुझे यशवंतपुर जाना है।' ____ आने वाला व्यक्ति लंगड़ा था। वह चलने से मजबूर था- कुछ कदम घिसटते-घिसटते मुश्किल से ही चल पाता था। हाँ, भली-भाँति देख सकता था वह। उसने खुश होते हुए जवाब दिया- 'भाई! मुझे भी यशवंतपुर ही जाना है, लेकिन लंगड़ा हूँ और भली-भाँति चल भी नहीं सकता हूँ। देखने की क्षमता मेरे पास है।' ___ इस लंगड़े व्यक्ति को ज्ञान का प्रतीक मान लीजिये। ज्ञान जान सकता है, समझ सकता है, समाधान और निर्णय ले सकता है लेकिन मंजिल की राह पर ठीक से चल पाने में असमर्थ होता है। राह को जानना एक बात है लेकिन राह पकड़ कर मंजिल तक पहुँचना तो चले बिना संभव नहीं। देखने वाले को चलने वाला चाहिये और चलने वाले को देखने वाला। राह तय करके मंजिल तक पहुँच पाना तभी संभव है। ___लंगड़े व्यक्ति ने अंधे व्यक्ति को संबोधित करते हुए कहा- भाई! हम दोनों समय से यशवंतपुर पहुँच सकते हैं और उसके लिये मेरे पास एक अर्थपर्ण सझाव है। यदि इस सझाव को तम मान सको तो हम दोनों का मन्तव्य सफल हो सकता है। अंधे को इस आश्वासन से बढ़कर और क्या चाहिये था, उत्सुकता से उसने पूछा- भाई! आपका सुझाव बताइये, मैं उसे मानने को तैयार हूँ। लंगड़े व्यक्ति ने कहा- मैं चल नहीं सकता, लेकिन दूर-दूर तक देख सकता हूँ। तुम देख नहीं सकते, लेकिन तेज चाल से चल सकते हो। हम दोनों मिल जाएं तो हमारा काम बन सकता है। तम मझे अपने कंधे पर बिठालो, मैं राह सुझाता जाऊँगा और तुम चलते जाना। अपने-अपने अभाव के उपरान्त भी हम अपने लक्ष्य तक यथासाध्य शीघ्र पहुँच जाएंगे। ज्ञान का प्रस्ताव चारित्र ने स्वीकार कर लिया। ज्ञान, चारित्र का पथ दर्शक बन गया और चारित्र पथ चालक। दोनों का संयोग इस कारण बैठ सका कि दोनों के बीच में विश्वास का सूत्र बैठ गया। यह बीच वाला दर्शन था- लंगड़े और अंधे की युति की आस्था की कड़ी। यों लक्ष्य के लिये मार्ग सध गया-जानो, मानो और करो। ज्ञान और चारित्र की परस्पर अनिवार्यता की एक पौराणिक कथा भी ले लें। पांडव और कौरव 140
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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