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सुचरित्रम्
अस्तेय शब्द का अर्थ है-चोरी नहीं करना। चोरी वह कहलाती है जहाँ बिना दिए कुछ ले लिया जाता है ( अदत्तादानं स्तेयम्-तत्त्वार्थ सूत्र 7/10)। जिस वस्तु पर किसी दूसरे का स्वामित्व हो, भले ही वह वस्तु तृणवत् मूल्यरहित ही क्यों न हो, उसके स्वामी की आज्ञा के बिना चौर्य बुद्धि से उसे ग्रहण करना चोरी है। मन, वचन, काया द्वारा दूसरे के अधिकारों का स्वयं हरण (शोषण) करना, दूसरे से हरण करवाना या उसका अनुमोदन करना चोरी है। जिस वस्तु आदि पर वास्तविक रूप में अपना अधिकार नहीं है, उस पर बिना उसके स्वामी की आज्ञा के अधिकार करने को, उसे अपने काम में लेने और उससे लाभ उठाने को चोरी कहते हैं । लौकिक दृष्टि से चोरी की गणना में वे ही कार्य आते हैं जिनके करने से शासकीय कानूनों के अनुसार दंड की व्यवस्था है, किन्त धार्मिक क्षेत्र में वे सब कार्य चोरी में गिने जाते हैं जिनके द्वारा दूसरों के न्यायोचित अधिकारों का अपहरण होता है। चोरी के अनेक कारण हैं किन्तु मुख्य कारण धनलिप्सा है। व्यक्ति जब विषयों का लालची बनता है-भोगों के लिए लालायित रहता है, तब वह उन्हें प्राप्त करने के लिए चोरी करने में संकोच नहीं करता। सामाजिक कुप्रथाओं, मान-सम्मान के लालच अथवा दिखावा करने की होड़ में पड़ कर भी व्यक्ति प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से चोरी के कुकर्म में अपने आपको लगाता है।
धन मनुष्यों का बाह्य प्राण माना गया है, अतः उसका अपहरण करने से उनका प्राणघात हो जाता है। यही कारण है कि अदत्तादान या चोरी में हिंसा का दोष भी स्पष्ट है। इस संदर्भ में कहा गया है कि जलकाय की हिंसा अर्थात् पानी की बर्बादी भी चोरी है (आचारांग 1-1-3)। इससे स्पष्ट विदित होता है कि किसी भी जीव की हिंसा सिर्फ हिंसा ही नहीं है, अपितु हिंसा के साथ-साथ चोरी भी है। अहिंसा के विषय में यह अति तार्किक एवं सूक्ष्म विवेचन है। इसी तरह चौर्य कर्म करने वाला असत्य भाषण से भी नहीं बच सकता है। इसी अभिप्राय से अहिंसा और सत्य व्रत के बाद अस्तेय व्रत को तीसरा स्थान दिया गया है।
धर्मशास्त्र तो यहाँ तक सतर्क करते हैं कि यदि कोई साधु वस्तुतः तपस्वी, ज्ञानी अथवा उत्कृष्ट आचारादि से सम्पन्न नहीं है और दूसरा व्यक्ति उसे वैसा बताता है तो उस साधु को निःसंकोच कह देना चाहिए कि आप मुझे जैसा समझ रहे हैं, वास्तव में मैं वैसा हूँ नहीं। ऐसा न करके यदि वह साधु झूठी प्रशंसा पर मौन धारण कर लेता है और अनधिकार रूप से मान, सम्मान, प्रतिष्ठा या प्रशंसा प्राप्त कर लेता है तो वह उसका चौर्य कर्म ही कहा जाएगा। अतः साधक जीवन के लिए यह अनिवार्य बताया गया है कि वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म चौर्य कर्म के पाप से बचे और समस्त दुःखों से मुक्त होने के लिए अस्तेय व्रत का सम्यक् रूप से पालन करे (आचारांग 2-7-1)। जो साधक तप, अवस्था, आचार और भाव को छिपाता है, दूसरों के द्वारा पूछे जाने पर स्पष्ट नहीं बताता, वह साधु होने पर भी किल्विष (नीच) देव की योनि में उत्पन्न होता है (तव तेणे वय तेणे रूव तेणे य जे नरेः आयार भाव तेणे य कुव्वइ देवकिविसं-दशवैकालिक सूत्र)। अपने पर जिसका उपकार है, जिनसे अपने को सहायता मिली है उसका बदला न चुकाना भी चोरी है (तैर्दत्ता न प्रदायेभ्यो भुंक्ते स्तेन एव सःगीता)। इस रूप से चौर्य कर्म की बारीकियों को गहराई से समझ कर चोरी से अलग रहना चाहिए।
श्रमणाचार की दृष्टि से अस्तेय व्रत की प्रतिज्ञा है-जीवन पर्यन्त के लिए सर्व अदत्तादान
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