________________
मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग
विरमण। इससे सम्बन्धित पांच भावनाएँ-(1) सोच विचार पूर्वक मितावग्रह की याचना, (2) अनुज्ञापित पान भोजन ग्रहण करना, (3) अवग्रह का अवधारण करना, (4) अभीक्ष्ण (पुनः पुनः) वस्तुओं की मर्यादा करना तथा, (5) साधर्मिक से परिमित पदार्थों की याचना करना। इन भावनाओं पर आचरण करने से हिंसा से बचने और अहिंसा के परिपालन में पूर्ण सहायता मिलती है। ___4. ब्रह्मचर्य :- भारतीय संस्कृति में ब्रह्मचर्य की साधना को अन्य सभी साधनाओं की अपेक्षा विशेष महत्त्व दिया गया है। वेदों, उपनिषदों, बौद्ध सूत्रों एवं जैनागमों में ब्रह्मचर्य की महत्ता का वर्णन प्रभावशाली ढंग से किया गया है। इस व्रत से नैतिकता का श्रेष्ठ निखार होता है। मन, वचन और काया से देव, मनुष्य एवं तिर्यंच शरीर सम्बन्धी सब प्रकार के मैथुन सेवन का परित्याग करना ही ब्रह्मचर्य है। इस प्रकार श्रमण कृत, कारित अनुमोदित तथा मन, वचन और काया से जीवन भर मैथुन का त्यागी होता है। मैथुन हिंसा का कारण है, इससे जीवों का घात होता है (आचारांग 2/15)। महात्मा गांधी के अनुसार ब्रह्मचर्य का अर्थ है-मन, वचन और काया से समस्त इन्द्रियों का संयम (गांधी वाणी पृ. 94)।
- अब्रह्म का त्याग ब्रह्मचर्य है तो यह अब्रह्म क्या है? काम राग जनित नर-नारी की चेष्टाओं को अब्रह्म कहते हैं। याने मैथुन अब्रह्म है (मैथुनमब्रह्मः-तत्त्वार्थ सूत्र) । यथार्थ में मिथुन की प्रवृत्ति को मैथुन कहा जाता है। संक्षेप में जो ब्रह्म न हो वह अब्रह्म है। ब्रह्म का अर्थ है-जिसके पालन व अनुसरण से सद्गुणों की वृद्धि हो। इस दृष्टि से जिस ओर जाने के कारण सद्गुणों में वृद्धि न हो, बल्कि दोषों का ही पोषण हो वह अब्रह्म है। मिथुन की प्रवृत्ति ऐसी है कि इसमें पड़ते ही सारे दोषों का पोषण और सद्गुणों का ह्रास प्रारंभ हो जाता है, इसलिए मैथुन को अब्रह्म कहा है।
आचारांग में ब्रह्मचर्य के पालन की दृष्टि से स्पष्ट निर्देश मिलता है, जैसे-एक ब्रह्मचारी पुरुष स्त्री सम्बन्धी तथा ब्रह्मचारिणी स्त्री पुरुष सम्बन्धी काम कथा न करे, उन्हें वासनायुक्त दृष्टि से न देखे, परस्पर कामुक भावों का प्रसारण न करे, उनके प्रति ममत्व न रखे, उनके चित्र को आकृष्ट करने के लिए शरीर की विभूषा या साज सज्जा न करे, वचन गुप्ति का पालन करे और मन को संवृत्त रख कर पाप कर्म से सदा दूर रहे। ब्रह्मचर्य की आराधना का यह मार्ग है (आचारांग 1-5-4)। सूत्रकार इस तथ्य के ज्ञाता थे कि साधक के सुखशील होने पर काम वासना उभरती है और वासना पीड़ादायक बनती है अत: काम निवारण के छः उपाय बताए गए हैं-(1) साधु को नीरस भोजन करना चाहिए, (2) ऊनोदरी तप (कम खाना) करना चाहिए, (3) कायोत्सर्ग अर्थात् विविध प्रकार के व्यायामआसन करने चाहिए, (4) ग्रामानुग्राम विहार करना चाहिए, (5) आहार का परित्याग कर देना चाहिए तथा (6) स्त्रियों के प्रति आकृष्ट होने वाले मन को सर्वथा विमुख रखना चाहिए (शीलांक टीका (आचारांग) पत्रांक 198)। साधक को इनमें से अनुकूल उपाय या उपायों का अभ्यास करना चाहिए।
अपने यथार्थ रूप में ब्रह्मचर्य वह अग्नि है जिसमें तप कर आत्मा की परिशुद्धि हो जाती है। ब्रह्मचर्य की साधना शरीर और आत्मा दोनों को पुष्ट करती है। अहिंसा, सत्य आदि जहाँ आत्मबल को बढ़ाते हैं वहाँ ब्रह्मचर्य की साधना एक साथ दोनों को अपरिमित बल प्रदान करती है। ब्रह्मचर्य
133