SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग श्रमणाचार की दृष्टि से अहिंसा महाव्रत की प्रतिज्ञा है - जीवन पर्यन्त के लिए सर्व प्राणातिपात विरमण। इससे सम्बन्धित पांच भावनाओं का भी उल्लेख है, जो इस प्रकार है - (1) गमनागमन सम्बन्धी सावधानी, (2) मन की निष्पापकता, (3) वाणी की निष्पापकता, (4) आदान निक्षेप सम्बन्धी सावधानी तथा (5) आलोकित पान भोजन । 2. सत्य :- अहिंसा की प्रतिज्ञा के पश्चात् सत्य की प्रतिज्ञा का क्रम है। असत्य है झूठ और इसकी परिभाषा है-असत् कथन करना (असदभिधानमनृतम् - तत्त्वार्थ सूत्र 7-9 ) असत् शब्द में कथन के साथ चिन्तन एवं आचरण का भी समावेश है। असत् का आचरण भी प्रमत्त योग से ही होता है । जो वस्तु जिस रूप में नहीं है अथवा जो है ही नहीं, उसे सत् कहना या अन्यथा रूप कहना असत्य है। इसके साथ ही सत्य होने पर भी जो वचन पीड़ाकारी है, वह बोलना भी असत्य है । नीतिकारों ने यही कहा है- 'सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात्, न ब्रूयात सत्यमप्रियम् ।' इसके विपरीत सत्य की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि असत्य बोलने के कारणों के मौजूद रहने पर भी मन, वचन और काया से असत्य नहीं सोचना, असत्य नहीं बोलना और असत्य आचरण नहीं करना ही सत्य महाव्रत है ( आचारांग - 215 ) । प्रयोजन होने पर भी साधु को सदा हित, मित एवं सत्य बोलना चाहिए (आचारांग 215)। इस प्रकार सत्य महाव्रत के मूल में भी अहिंसा की भावना ही निहित है। आचारांग में कहा गया है कि तू सत्य में धृति कर (सच्चम्मिं धितिं कुव्वह- आचारांग 1-3-2) क्योंकि सत्य में अधिष्ठित साधु समस्त पापों का शोषण करता है। अन्ततः सत्यशील साधक परमात्म् पद प्राप्त करता है । सत्य को भगवान् तक कहा गया है और लोक में सारभूत तत्त्व ( तं सच्वं खु भगव - प्रश्नव्याकरण, संवर द्वार 1)। महात्मा गांधी ने भी इस कथन का पुरजोर समर्थन किया है, वे कहते हैं-परमेश्वर सत्य है यह कहने की अपेक्षा सत्य परमेश्वर है, यह कहना अधिक उपयुक्त है ( गांधी वाणी पृ. 12 - 18 ) । जो सत्य को जानता है, मन से, वचन से और काया से सत्य का आचरण करता है वह परमेश्वर को पहचानता है। इतना ही नहीं, सत्य साधक आत्म-साक्षात्कार कर लेता है (आचारांग 1-3-3)। · श्रमणाचार की दृष्टि से सत्य महाव्रत की प्रतिज्ञा है - जीवन पर्यन्त के लिए सर्वमृषावाद विरमण । इससे सम्बन्धित पांच भावनाएँ - (1) वाणी विवेक, (2) क्रोध त्याग, (3) लोभ त्याग, (4) भय त्याग तथा (5) हास्य त्याग । व्यक्ति क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि के निमित्त पापकारिणी, पाप का अनुमोदन करने वाली, दूसरे के मन को पीड़ा पहुंचाने वाली असत्य भाषा बोलता है, अत: प्रज्ञावान साधु को क्रोध, लोभ, भय, हास्य आदि का सर्वथा परित्याग कर देना चाहिए। ये हिंसा के समान ही असत्य वचन के भी कारण । जिस प्रकार असत्य हिंसा का पोषक है, उसी प्रकार सत्य आदि अन्य व्रत अहिंसा के पोषक हैं। सत्य और अहिंसा का घनिष्ठ सम्बन्ध है । सत्य के स्वरूप पर गंभीर चिन्तन किया जाना चाहिए। 3. अस्तेय :- अहिंसा और सत्य व्रत की रक्षा के लिए श्रमण जीवन में अस्तेय व्रत का पालन भी अनिवार्य है क्योंकि चौर्य कर्म करने वाला हिंसक होने के साथ-साथ असत्यभाषी भी होता है। 131
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy