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सुचरित्रम्
स्रोत है । सम्पूर्ण जैन साहित्य को चार अनुयोगों में विभक्त किया गया है, जो इस प्रकार है- (1) द्रव्यानुयोग तात्त्विक, दार्शनिक तथा कर्म सिद्धान्त विषयक ग्रंथ, (2) गणितानुयोग - भूगोल, गणित व ज्योतिष विषयक ग्रंथ, (3) धर्म कथानुयोग - आख्यानात्मक कला साहित्य एवं ( 4 ) चरण करणानुयोग- श्रमणों व श्रावकों के आचार से संबंधित ग्रंथ । चरण का अर्थ आचार से लिया जाता है तथाचरण करण का दूसरा नाम ही आचार विज्ञान है। आचार विज्ञान प्रयोग तथा आचरण से मानव जीवन के साथ सदा जुड़ा रहता है।
चरण करणानुयोग के प्रधान स्तम्भ पाँच व्रत हैं - (1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अस्तेय, (4) ब्रह्मचर्य तथा (5) अपरिग्रह । पालन करने की दृष्टि से इन पांच व्रतों को 'महा' तथा 'देश' रूप दो विभाग किए गए हैं। महाव्रत श्रमण- श्रमणियों के लिए पालनीय होते हैं और समग्र रूप से पालन के कारण ये पांचों महाव्रत कहलाते हैं, किन्तु श्रावक-श्राविकाओं (गृहस्थों) के लिए इनके आंशिक पालन का विधान है जिससे ये पांचों व्रत देशव्रत या अणुव्रत कहलाते हैं। आशय यह है कि इन पांच व्रतों की भावना सम्पूर्ण मानव समुदाय में व्याप्त रहनी चाहिए और पालन अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार किया जाए। इस प्रकार ये पांचों व्रत श्रमणाचार तथा श्रावकाचार दोनों प्रकार की आचार प्रणालियों के लिए मूलभूत बिन्दु हैं।
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प्रायः प्रत्येक मनुष्य के जीवन में अनेक छोटे बड़े दोष विद्यमान रहते हैं, किन्तु मूलभूत दोष पांच हैं जो शेष समस्त बुराइयों, दोषों और पापों को पैदा करते हैं। ये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह (संग्रह) । आत्मा को इन पांच दोषों से सर्वथा मुक्त करना 'श्रमणाचार का प्रमुख लक्ष्य है । इस लक्ष्य की पूर्ति इन पांचों महाव्रतों से ही संभव है। पात्र भेद की अपेक्षा से ही इन व्रतों के दो भाग हैं- महाव्रत एवं अणुव्रत । ये दोनों श्रमणाचार तथा श्रावकाचार के आधार स्तम्भ हैं। सम्पूर्ण भारतीय धर्म दर्शनों में पांच व्रतों, यमों या शीलों को मानव जीवन एवं चरित्र का आधार माना गया है।
1. अहिंसा :- भारत के प्रायः सभी धर्म दर्शनों तथा आध्यात्मवादी विचारकों ने जीवन शैली या आचार पद्धति की दृष्टि से अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया है तथा अहिंसा को परमोधर्म कहा है। अहिंसा का सिद्धान्त किसी व्यक्ति, जाति, वर्ग, देश या काल से बंधा हुआ नहीं है, अत: इसे सार्वभौम
भी कहा गया है। यही नहीं, अहिंसा को सभ्यता एवं संस्कृति का प्रतिमान भी माना गया है। जो व्यक्ति, समाज या देश अहिंसा की दिशा में जितना अग्रगामी बनता उतना ही उसे सभ्यता तथा संस्कृति के क्षेत्र में भी अग्रणी माना जाता है। अहिंसा की सार्वभौमिकता को सर्वत्र मान्यता मिली है कि अहिंसा का आचरण किसी जाति, देश, अवस्था या काल विशेष तक ही सीमित नहीं है (जातिदेशकालसमयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमाः महाव्रतम् योगदर्शन 2 / 31 ) । अत: समग्र मानव जाति को सभी परिस्थितियों और सभी कालों में अहिंसा का पालन करना चाहिए ।
अहिंसा के स्वरूप को 'आत्मौपम्य' शब्द से भी विवेचित किया गया है। इस शब्द का अर्थ हैसंसार के समस्त प्राणियों में आत्मवत् भावना का होना । प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुःख से डरता है, अत: किसी की हिंसा नहीं करना चाहिए। जब कोई प्राणी मात्र को आत्मवत् समझने लगेगा तो निश्चय है कि वह दूसरों के प्रति वैसा ही आचरण करेगा जैसा वह दूसरों से अपने लिए चाहता है।