SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 181
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग अहिंसा सम्बन्धी उसके विचार स्पष्ट हो जायेंगे कि-मैं, किसी की हिंसा नहीं करूँ, किसी को पीड़ा नहीं पहुँचाऊँ, सबको समान समझू और सबसे आत्म तुल्यता का व्यवहार करूं तथा ये विचार उसके आचरण में ढल जाएंगे। इस प्रकार अहिंसक जीवन शैली की प्रक्रिया का प्रारंभ हो सकता है। ज्ञानियों के ज्ञान का सार यही कहा गया है कि किसी प्राणी के हनन की इच्छा तक मत करो (आचारांग 15-5 तथा सूत्रकृतांग 1-11-10)। विभिन्न धर्मों में अहिंसा की अवधारणा विद्यमान है। तथागत बुद्ध कहते हैं कि दंड और मृत्यु सबके लिए कष्ट कर होते हैं, अतः सबको अपने समान समझ कर किसी की हिंसा मत करो (धम्मपद 10-1, 10-4)। जैसा मैं हूँ, वैसा अन्य है-इस प्रकार सभी को आत्मवत् समझ कर किसी का घात नहीं करना चाहिए और न दूसरों से करवाना चाहिए (सुत्तनिपात, 3-3-7-27)। महाभारत में अहिंसा को परम धर्म, परम तप, परम संयम, परम मित्र और परम सुख कहा है। जिस प्रकार मनुष्य अपने ऊपर दया रखता है, उसी प्रकार से दूसरों पर भी रखनी चाहिए। (अनुशासन पर्व 115,116, 145 व 215)। पतंजलि ने कहा है कि भीतर से अहिंसा के प्रतिष्ठित हो जाने पर उसके निकट सब प्राणी अपना स्वाभाविक वैर भाव त्याग देते हैं। (योग सूत्र 2-35)। इस्लाम भी अल्लाह को करुणा की मूर्ति बताता है जिसका अर्थ है कि वहां भी किसी सीमा तक अहिंसा की अवधारणा है (बिस्मिल्लाह रहीमानुर्रहीम-कुरान शरीफ 5-35)। महात्मा ईसा की अहिंसा तो उच्चस्तरीय मानी जाती है। वे कहते हैं कि तू अपनी तलवार म्यान में रख ले, क्योंकि जो लोग तलवार चलाते हैं, वे सभी तलवार से ही नष्ट किए जाएंगे। तुम अपने दुश्मन से भी प्रेम करो और जो तुम्हें सताते हैं, उनके लिए भी प्रार्थना करो (बाइबिल 2-51-52 तथा 5-45-46)। यहूदी धर्म में भी व्यक्ति के आत्म सम्मान तक पर कभी चोट न पहुँचाने का निर्देश दिया गया है (मेतलिया-58)। कन्फ्यूशियस ने भी कहा है कि जो चीज तुम्हें नापसन्द है, वह दूसरों के लिए हरगिज मत करो (तोरा 19-17)। किन्तु जैन धर्म के आचारांग सूत्र में जिस गंभीरता, विशुद्धता तथा मार्मिकता से अहिंसा के स्वर को मुखरित किया है, वह अनुपम है। ___ हिंसा मूल शब्द है जिसका निषेध है। अहिंसा तथा अहिंसा का विधेयात्मक स्वरूप भी व्यापक है। हननार्थक 'हिंसि' धातु से हिंसा शब्द बना है। हिंसा का अर्थ होता है किसी को मारना या सताना। आचारांग में हिंसा के लिए प्राणातिपात (प्राण+अतिपात) शब्द का व्यवहार हुआ है। इसका अर्थ है प्राणों का नाश करना। प्राण दस प्रकार के कहे गए हैं, अतः इनमें से किसी प्राण का नाश न करना। कैसे व्यक्ति प्राणों का नाश करता है तथा हिंसा का आचरण करता है? कहा गया है कि व्यक्ति प्रमाद के वशीभूत होकर जीवों का हनन, छेदन-भेदन, ग्रामघात और प्राणघात करता है (आचारांग, 1-12-7)। इस रूप में हिंसा की परिभाषा होती है कि प्रमाद, रागद्वेष या असावधानी से प्राणवध करना हिंसा है (प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा-तत्वार्थ सूत्र 7-8)। कषाय और प्रमाद मानसिक हिंसा है तो प्राणवध कायिक हिंसा। वास्तव में हिंसा का मूल मनुष्य के संकल्प में होता है। जब किसी के प्राण विच्छेदन में मन का दुःसंकल्प जुड़ता है-राग द्वेष की भावना प्रेरक बनती है तब हिंसा होती है। यों कषाय और प्रमाद ही हिंसा का मूल आधार है। हिंसा के व्यक्ति की वृत्तियों के अनुसार 129
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy