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मानव जीवन में आचार विज्ञान : सुख शांति का राजमार्ग
के अभिग्रहों के साथ तप का आसेवन करना भी विशेष साध्वाचार है। साधना को पूर्णतः सफल बनाने हेतु समाधिमरण (संथारा) रूप आचार का पालन करना भी श्रमण की एक विशिष्ट चर्या है।
विशेष श्रमणाचार के अन्तर्गत प्रधान रूप से तीन बातों पर विचार किया जाता है (1) तप - श्रमण-श्रमणियों के चारित्रिक निखार. दढ आत्मसंयम तथा अन्तर्शद्धि हेत तपश्चर्या की महती आवश्यकता है। तप एक प्रकार की अग्नि है, जिसके द्वारा पुराने कर्मों को शीघ्र ही भस्मीभूत किया जा सकता है (आचारांग 1-4-3)। सम्यग् ज्ञान रूपी चक्षु के धारक मुनि के द्वारा कर्म रूपी मैल को दूर करने के लिए जो तपा जाता है, उसे तप कहते हैं (पद्यनन्दिविंशतिका)। बाह्य तप के छः तथा आभ्यन्तर तप के भी छः, यों तप के कुल बारह भेद होते हैं-अनशन, ऊनोदरी या अवमोदर्य, वृत्ति परिसंख्यान या भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश, संलीनता या विविक्त शय्यासन (बाह्य) तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान व कायोत्सर्ग (आभ्यन्तर)। (2) परीषह-जो सहा जाए, वह परीषह है। श्रमण साधना का मुख्य लक्ष्य है-समत्व, जिसे गीता में समत्व योग कहा है। इस समत्व को भंग करने वाली अनेक अनुकूल-प्रतिकूल, बाधाओं, कष्टों या परिस्थितियों का साधुसाध्वियों को सामना करना पड़ता है जो उनके लिए कसौटियाँ कही जाती हैं। इन कसौटियों पर खरा उतरने वाला साधक ही अनासक्त और सफल कहलाता है। यों तो परीषह अनेक हो सकते हैं किन्तु आचार में सामान्य रूप से बाईस परीषहों का उल्लेख है-क्षुधा, पिपासा, शीत, ऊष्ण, दंसमसक, नाग्न्य (अचेल या अल्प वस्त्रत्व) अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ, रोग, तृण स्पर्श, मल, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा, अज्ञान तथा अदर्शन । समभाव से इन परीषहों को सहने करने का श्रमणाचार में निर्देश दिया गया है। (3) समाधि-समाधिमरण भी एक कला है। इस रूप में जैन साधना आनन्दपूर्वक जीने की साधना है। आचार मर्यादाओं में आबद्ध जीवन जीने की कला भी सिखलाता है तो मरने की कला भी। मरण भी एक प्रकार की बन्धन मुक्ति है। मल-मूत्र मुक्ति से जैसे कोई राहत की सांस लेता है और मोह मुक्ति से भी अन्त:करण में तृप्ति का अनुभव होता है तो देह मक्ति का भी अपना आनन्द होना ही चाहिए। लेकिन मृत्यु स्वयं नहीं, बल्कि मृत्यु का भय प्राणियों को अधिक भयभीत करता है। इस भय से मुक्त होने का श्रेष्ठ उपाय है समाधि मरण अर्थात् मृत्यु को सहर्ष निमंत्रण देना, मन को पहले ही मृत्यु-भय से मुक्त कर देना। सब जानते हैं कि जीवन का अवश्यंभावी अन्त मृत्यु है फिर भी इससे सबको भीति लगती है और मृत्यु भय सबसे बड़ा भय माना जाता है। ऐसे में मृत्यु को जीवनमय बना देने का समाधिकरण का उपक्रम अद्वितीय है। वही साधक सफल माना जाता है जो मरने की कला में भी निष्णात हो जाता है। वह मृत्युंजय कहलाता है। समाधि मरण से साधक कर्म क्षय कर्ता बन सकता है और वह मृत्यु उस के लिए कल्याण प्रद होती है। (आचारांग 1/8/8)। आचार विज्ञान के रसायन रूप हैं सर्व शुद्धाचारी पांच व्रत
हिन्दू धर्म में वेद, जैन धर्म में अंग आगम, बौद्ध धर्म में त्रिपिटिक, ईसाई धर्म में बाईबिल, इस्लाम धर्म में कुरान, पारसी धर्म में अवेस्ता आदि अपनी-अपनी आचार पद्धति के प्रमुख स्रोत हैं। अंग (द्वादश) आगमों में आचारांग सूत्र आचार के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालने वाला सारपूर्ण
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