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चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या
भी पतित बना देता है। आज के विषम समाज में कई बार ऐसे विवशताजन्य पतन के दृश्य देखे जा सकते हैं। अन्यान्य प्रकार की विषमताओं में आर्थिक विषमता बड़ी कष्टदायक होती है। एक गरीब सच्चाई और ईमानदारी में पक्का विश्वास रखता है और अपने चरित्र को बेदाग रखना चाहता है लेकिन अर्थाभाव में ऐसी कठिन परिस्थिति सामने आ जाती है जो उसे अपने अब तक के साफ चरित्र को गिरा देने को मजबूर बना देती है। समझिए कि एक गरीब की माँ सख्त बीमार है और उसकी जीवन रक्षा के लिये अमुक सर्जरी जरूरी है। उसमें हजारों रूपये चाहिये और उसके पास एक पैसा भी नहीं। इस पर वह कोई अपराध करके आवश्यक धन जुटाता है तो इसे उसकी मजबूरी माननी होगी। एक ओर जहाँ मजबूरी से चरित्र का ह्रास होता है तो दूसरी ओर धनाढ्य व्यक्ति मदोन्मत्त बन कर अपराध करते हैं और अपने चरित्र का पतन करते हैं। चरित्र की स्वस्थता के लिये सामाजिक विषमताओं को दूर करना पहली आवश्यकता है। चरित्र विकास के लिये समुचित धरातल का निर्माण जरूरी है।
चरित्रशीलता को एक सतत प्रवहमान नदी का रूप दिया जाए तो संस्कार और सदाचार उस नदी के दोनों किनारे होंगे। संस्कार जितने सुन्दर और सदाचार जितना सुदृढ़ होगा, नदी का प्रवाह भी कभी अवरुद्ध नहीं होगा, न ही वह कभी जलहीन होकर शुष्क बनेगी। किन्तु व्यक्तिगत लिप्सा, सामाजिक
षमता अथवा व्यवस्था की असंगतता के कारण जब वैयक्तिक अथवा सामहिक जीवन में चरित्र का हास होने लगता है तो नदी का प्रवाह मन्द होता है. जल सखने लगता है और वैसी दर्दशा में दोनों किनारे भी बिखरने लगते हैं। संस्कार और सदाचार जब बिखरते हैं तब व्यक्ति कहाँ बचता है? चरित्रहीन व्यक्ति मिटटी के एक ढेले की तरह बिखर कर चर-चर हो जाता है। चरित्र निष्ठा के साथ जिस व्यक्ति एवं समाज को मणि के समान दमकना चाहिए वही व्यक्ति या समाज चरित्र के अभाव में अस्त-व्यस्त, विश्रृंखल एवं शून्यवत् बन जाता है। आध्यात्मिक जगत् में चरित्र या चारित्र की ऊँचाइयों की थाह लीजिये!
जैसी कि चरित्र की सामान्य व्याख्या दी गई है कि चरित्र अशुभ कार्यों से निवृत्ति दिला कर व्यक्ति को शुभ कार्यों में प्रवृत्त करता है, यह सामान्य व्याख्या निम्नतम स्तर से लेकर विशिष्ट एवं सर्वोच्च शिखर तक भी लागू होती है- यह दूसरी बात है कि अशुभता से निवृत्ति उसकी छोटी-छोटी बारीकियों तक ली जाती है तो शुभता के अति सूक्ष्म छोरों को प्रवृत्ति की सीमा में सम्मिलित किया जाता है। बाह्य जीवन की स्थूलता से लेकर अन्तर्जीवन की सूक्ष्मता तक चरित्रशीलता व्याप्त हो जाती है तो उस चरित्रशीलता का स्वरूप भी गहन ज्ञान तथा कठिन आचार वाला बन जाता है। ___आध्यात्मिक जगत् में चरित्र या चारित्र की ऊंचाइयों की थाह लेना निश्चय ही आनन्द एवं प्रेरणा का विषय है। जब अन्तस में आनन्द पैदा होता है तो वह अन्दर-बाहर सब ओर फैल जाता है। ऐसे आनन्द से एक प्रेरणा फूटती है कि चरित्र विकास की स्थूलता से हम भी उसके सूक्ष्म क्षेत्र में आगे बढ़ें तथा उन ऊँचाइयों की और गमन करने की चेष्टा करें।
यह परिपूर्ण चारित्र की परिभाषा है कि विशुद्ध आत्मा का विशुद्ध चारित्र ही एक अखंड और
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