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________________ सुचरित्रम् वास्तविक चारित्र है और वही परिपूर्ण है- (एगे चरित्ते-स्थानांग सूत्र 1-44)। जीवन में निरन्तर प्रवेश करते हुए दोषों को और उनसे बंधने वाले पाप को रोकना है तो वह सम्यक् चारित्र के द्वारा ही संभव है। चारित्र के अभाव में दोषों से छुटकारा नहीं मिलता (चरित्तेण निगिण्हाइ उत्तराध्ययन 28/35)। तो ऐसे चारित्र का स्वरूप कैसा है? जैन दर्शन के अनुसार सम्यग्दर्शन चारित्र का मूलाधार है। यह अज्ञान को सुज्ञान में, अचारित्र को सुचारित्र में तथा अतप को सुतप में परिवर्तित कर देता है। सम्यग्दर्शन के पहले मिथ्यात्व की दशा होती है और मिथ्यात्व चारित्र विकास का बाधक होता है। इस दर्शन में मोक्ष को परम लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग बताया गया है- सम्यग् ज्ञान, सम्यग् दर्शन तथा सम्यग् चारित्र का मार्ग। यह मार्ग ही धर्म का प्रतीक है। समन्वित रूप में यह धर्म दो प्रकार का कहा गया है- श्रुतधर्म और चारित्र धर्म। (दुविहे धम्मे पण्णते, तंजहा-सुयधम्मे चेव चरित्त धम्मे चेव- स्थानांग सूत्र 2-1-72)। श्रुतधर्म में ज्ञान और दर्शन का समावेश है तो चारित्र धर्म में सम्यक् चारित्र का। ___ आध्यात्मिक दृष्टि से चारित्र किसे कहें? चारित्र वह अनुष्ठान विशेष है जिसके द्वारा आत्मा को विशुद्ध अवस्था में स्थिर रखा जा सकता है। विकल्प में चारित्र मोहनीय कर्म से क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति परिणाम को चारित्र कहा है। पर्व संचित कर्मों को जो रिक्त करे वह भी चारित्र है- (चित्तं रिक्तं करोतीति चारित्रम्-नियुक्ति)। मोक्षाभिलाषी आत्मा पूर्वसंचित कर्मों को दूर करने के लिये सर्वसावध योग की निवृत्ति करती है, वही चारित्र कहलाता है (एयं चयरित्तकरं चारित्तं होई आहिय- उत्तराध्ययन 28/33)। भावों की शुद्धि के उतार-चढ़ाव या तरतम भाव की अपेक्षा से चारित्र के पांच भेद हैं- (1) सामायिक चारित्र- समभाव में स्थित रहने के लिये समस्त अशुभ प्रवृत्तियों का त्याग करना सामायिक चारित्र है। समभाव का अर्थ है राग-द्वेष को घटाना-मिटाना, आत्मशुद्धि को प्राप्त करना तथा सांसारिकता से विरक्ति लेने का अभ्यास करना। इसके लिये हिंसाजन्य यानी सावध कार्य कलाप छोड़ने होते है और अहिंसक प्रणाली अपनानी होती है। कालावधि की दृष्टि से सामायिक चारित्र के दो भेद कहे हैं- (अ) इत्वरकालिक अर्थात् अल्पकालिक जिसकी स्थिति अन्तर्मुहुतर्त से लेकर छः माह तक की हो सकती है। (आ) यावत् कथित अर्थात् जीवनपर्यन्त की सामायिक। इसे यावत् जीवन के लिये अंगीकार करना होता है। यह दीक्षामंत्र है। (2) छेदोपस्थापन चारित्र- इस चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद करके महाव्रतों का पुनः उपस्थापन-आरोपण होता है। यह चारित्र भरतएरावत क्षेत्र में प्रचलित है। (3) परिहार विशुद्धि चारित्र-जिसमें विशिष्ट प्रकार के तप प्रधान आचार का पालन किया जाता है वह परिहार विशुद्धि चारित्र है। इसे कर्मों और दोषों का विशेष रूप से परिहार करने वाला और कर्म निर्जरा द्वारा विशिष्ट विशुद्धि लाने वाला चारित्र भी कहा जा सकता है। इस चारित्र के दो भेद हैं- (अ) निर्विश्या मानक तप करने वाले पारिहारिक साधु और (आ) निर्विष्ट कार्ययिक तप करके वैयावृत्य करने वाले आनुपहारिक साधु । (4) सूक्ष्म सम्पराय चारित्र- जिस चारित्र में कषाय भाव (साम्पराय) अतीव सूक्ष्म रह जाता है उसे सूक्ष्म साम्पराय चारित्र कहते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ रूप कषायों के चार प्रकारों में सिर्फ संज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश ही इस चारित्र में शेष रहता है। इसके दो भेद है- (अ) विशुद्धयमान- क्षपक से उपशम श्रेणी पर आरोहण करने वाले साधु के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध होते है। (आ) संक्लिश्यमान- उपशम श्रेणी से 116
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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