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सुचरित्रम्
की चरित्रहीनता उसके लिये ही कलंक का कारण नहीं बनती, बल्कि उसके दुष्प्रभाव से पूरा समाज भी नहीं बच पाता है। सच तो यह है कि चरित्र हीनता सम्पूर्ण मानव जाति को कलंक का टीका गाती है।
गहराई से सोचने, समझने एवं उपयुक्त निर्णय लेने का विषय है कि क्या प्राप्त डिग्रियों, उपाधियों और पदवियों से किसी भी व्यक्ति को योग्य माना जा सकता है? योग्यता मापने के कई मापदंड हो सकते हैं किन्तु सच्ची योग्यता को मापने का खरा मापदंड उसके स्वयं के चरित्र के सिवाय अन्य नहीं हो सकता? वास्तव में चरित्रशीलता का सर्वतोमुखी विकास हुए बिना हितकारक योग्यताएँ प्रकट ही नहीं होती। योग्यता का मुख्य आधार ही किसी का अपना चरित्र विकास है। वही नागरिक सनागरिक है जिसके चरित्र में हिंसा, शोषण, अपराध एवं पाप वासनाओं को समूल नाश का संकल्प जाग गया हो।
विभिन्न बाह्य चिह्नों, वेश-भूषाओं तथा उपासना पद्धतियों के रहते सभी धर्मों को एक करना कठिन है किन्तु चारित्रिक मूल्यों की समानता के आधार पर धर्मों में स्थायी एकता कायम की जा सकती है। चरित्र ही वह आधार है, जहाँ सबका सबके प्रति अटूट विश्वास उत्पन्न हो सकता है। अन्यान्य विषयों व संदर्भों को लेकर तो किसी भी धर्म सम्प्रदाय, जाति, वर्ग आदि में विरोध या विवाद पैदा हो सकता है और बना रह सकता है, किन्तु सच्चरित्रता को लेकर कभी कोई विवाद पैदा नहीं हो सकता और टिका नहीं रह सकता । कारण, प्रत्येक धर्म चरित्रशीलता का समर्थक एवं सम्पोषक रहा है। धार्मिक, नैतिक अथवा सामाजिक राष्ट्रीय समस्याएँ इतनी गंभीर नहीं है जितनी गंभीर समस्या है चारित्रिक पतन की यानी चरित्रहीनता की । चारित्रिक पक्ष जितना सजग और सशक्त होगा, उतनी सरलता से अन्यान्य सभी समस्याओं का सर्वमान्य समाधान निकाला जा सकेगा। हकीकत में सारी समस्याएँ चरित्र - सम्पन्नता के वातावरण में स्वत: ही समाहित होती जाती है। चरित्र सम्पन्न वातावरण की तो यह विशेषता होती है कि समस्याएँ पैदा ही नहीं होती हैं। चरित्र का अभाव ही समस्याएँ पैदा करता है और उनका हल नहीं निकलने देता। माना जाना चाहिए कि चरित्र ही समाज तथा राष्ट्र का मेरूदंड है। शरीर में जो आधारगत स्थान मेरूदंड का है, वही स्थान जीवन में चरित्र का है।
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चारित्रिक पतन के कई कारण हो सकते हैं, किन्तु उनमें बड़ा कारण है । व्यसन - व्यसन बढ़ते जाते हैं और चरित्र गिरता जाता है और जीवन उतना ही निरर्थक बनता जाता है। अधिकतर व्यसन ही व्यक्ति को अनीति, शोषण, असहिष्णुता, अन्याय, आक्रमण, अपहरण, असामाजिकता आदि के मार्ग पर ले जाते हैं। जीवन से लेकर जगत् तक का सौन्दर्य चरित्र की उज्ज्वलता में ही समाया हुआ होता है। इस कारण चरित्र का ह्रास उस सौन्दर्य को कुरूपता में बदलता रहता है। चरित्र के ह्रास के अन्य कारण- (1) शक्ति के साथ अहं । (2) सम्पत्ति के साथ मद, अविवेक एवं दुर्बुद्धि । (3) शौर्य के साथ स्वच्छंदता । (4) सम्मान की उद्दाम लालसा व यशलिप्सा । (5) अधिकारों के प्रति स्वार्थलोलुपता । (6) ज्ञान के साथ उन्माद । (7) भौतिक संसाधनों का आकर्षण आदि। ये दोष जब जीवनचर्या के साथ जुड़ जाते हैं, तब मानव का चरित्र पतन की राह पर आगे बढ़ता जाता है। इन कारणों के सिवाय कभी-कभी विवशता का शिकंजा भी इतनी कड़ाई से कस जाता है जो एक चरित्रनिष्ठ व्यक्ति को