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सुचरित्रम्
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विनयपूर्वक सहे तथा उत्कृष्ट भावों में रमण करता रहे। ऐसे में गुरु चन्द्ररुद्राचार्य के क्रोध को भी श्रेय तो देना ही होगा कि जिसके बिना शिष्य को सहिष्णुता का उच्चतम प्रमाण पत्र कैसे मिलता और कैसे उसे कैवल्य ज्ञान की परम सिद्धि प्राप्त होती ?
स्वच्छ एवं सुदृढ़ चरित्र निर्माण के लिये सदैव प्रतिकूल परिस्थितियों की आवश्यकता हुआ करती है कि जिनमें से एक चरित्रनिष्ठ साधक सरल भाव एवं समग्र साहस के साथ गुजरे। उन प्रतिकूल परिस्थितियों की आग में वह साधक अपने जीवन को जलाए नहीं, बल्कि सोने की तरह इस प्रकार तपा कर निखारे कि वह अपने आत्मिक गुणों के साथ कुन्दन की तरह दमक उठे। चरित्र का शब्दार्थ, भावार्थ एवं उसकी सार्थकता का समग्र जीवन पर प्रभाव
चरित्र शब्द संस्कृत के 'चर्' धातु से बना है, जिस का व्याकरण में क्रिया पद होने के अनुसार अर्थ होता है-चलना। इसका भावार्थ हुआ कि चलने से बनता है चरित्र । तो चरित्र का रहस्य साधारण चलने में भी है और विशेष चलने में भी । साधारण चलने का मतलब सभी बखूबी जानते हैं कि अपने पैरों के आधार पर रास्ता तय करना और गन्तव्य तक पहुँचना । कहीं भी चलने से ही पहुँचा जा सकता है और जीवनभर मनुष्य करता क्या है चलता है और चलता ही तो रहता है। कहते हैं 'जो सोवत है सो खोवत है और जो जागत है सो पावत है', लेकिन पाना केवल जग जाने से ही संभव नहीं होता है। उसके लिए जग कर उठना होता है, अपने पैरों पर अडिग खड़े होना होता है तथा प्राप्ति की दिशा में स्थिर गति से चल देना होता है। मूल में चलना ही मुख्य है।
चलने और चलते रहने से चरित्र बनता है । लोकभाषा में चलने को नाम दिया गया है चाल का और पारखी लोग किसी की चाल देख कर ही उसका सारा रंग-ढंग पहिचान लेते हैं। जैसे चलने की सफलता का नाम चरित्र है, उसी प्रकार कामयाब चाल को चलन कहा जाता है । यों चरित्र का सरल तथा सुबोध अर्थ है चाल-चलन । इसीलिये कहा जाता है कि चाल चलन सुधारो यानी चरित्र का निर्माण करो। चरित्र बस चरित्र होता है अर्थात् सधी हुई चाल । यह एक गुण है - ऐसा गुण जिस पर जीवन की सार्थकता निर्भर करती है और समग्र मानव जाति की विकास गति ।
होता है, उसका कोई रंग नहीं होता। उसकी होती है एक शक्ति जिसका उपयोग किया जा सकता है। यही गुण उपयोग या परिणाम की दृष्टि से दो प्रकार के रूप ले सकता है। यदि गुण उपयोग हितकारी है तो उसे सद्गुण कहा जाएगा। इसी गुण का उपयोग यदि अनिष्टकारी होगा तो वह दुर्गुण बन जाएगा । यों शक्ति एक होती है और उसके प्रयोग दो । चारित्रिक शक्ति की भी यही दशा होती है। सदुपयोग पर सत्चरित्र तथा दुरुपयोग पर दुष्चरित्र । इसका अर्थ यह निकलता है चरित्र का निर्माण इस विवेक और नजरिए के साथ किया जाए जिससे सर्वहित का क्षेत्र निरन्तर विकसित एवं प्रसारित होता जाए। यह आचरण का विषय है।
सारांश में आचरण को चरित्र कहा जा सकता है। चरित्र आचरण को संयमित बनाने की शक्ति प्रदान करता है और इस शक्ति के माध्यम से व्यक्ति कामनाओं एवं वासनाओं पर नियंत्रण स्थापित करता है तथा इन्द्रियों को आत्मिक अधिकार में लेकर उनसे शुद्ध प्रवृत्तियाँ करवाता है । चरित्र के दो