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________________ चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या जाया करता था। उस दिन भी वे अपने शिष्य के कंधों पर चढ़े हुए थे। घनघोर अंधेरे के कारण शिष्य अतीव सावधानी से धीरे-धीरे चल रहा था, फिर भी रास्ता कच्चा और पत्थरों, काँटों आदि से भरा हुआ सो ध्यान रखते-रखते भी शिष्य का पैर उचकता रहता और वह ठोकर खाते-खाते बचता । लेकिन इस तरह के झटके खाना गुरु को कतई बर्दाश्त नहीं था। गुरु का क्रोध भड़कने लगा। ज्यों ही उन्हें झटका लगता कि गुरु का डंडा शिष्य के माथे बरस पड़ता। झटके लगते गए और डंडे बरसते गए। शिष्य वेदना से तड़प रहा था, फिर भी वह गुरु से अपने अविनय की हार्दिक क्षमा मांगता रहता । वह अधिक सावधान हो जाता और आगे बढ़ता रहता । सघन अंधकार में आखिर चर्म चक्षु जितना काम कर सकते थे, उतना ही तो शिष्य आगे देख पाता। लेकिन गुरु का क्रोध रौद्र रूप धारण करता रहा और शिष्य के सिर पर क्रूर प्रहार होते रहे। 1 अचानक एक आश्चर्य घटित हुआ । यद्यपि वन की सघनता गहराती जा रही थी और तदनुसार अंधकार की गहनता भी किन्तु शिष्य के पैरों का उचकना एकदम बन्द हो गया। उसे उस सघन अंधकार में भी सब कुछ स्पष्ट दिखाई देने लगा था। उसकी आँखों में उज्ज्वल प्रकाश समा गया था और वही दिव्य प्रकाश उसके लिये चारों ओर प्रसारित हो गया था। गुरु तत्काल आश्यर्चान्वित हो • उठे, ज्ञानी तो थे ही, बोले- कहीं तुझे कैवल्य ज्ञान (सर्वोच्च परम ज्ञान ) तो नहीं हो गया ? शिष्य तो अतिशय विनीत था, उसने इतना सा ही उत्तर दिया- 'सब गुरुदेव की कृपा है।' और वह सधे हुए कदमों से आगे बढ़ता रहा। कुछ और परख कर लेने के बाद गुरु स्तब्ध रह गये। उनका डंडा प्रहार तो बंद हुआ ही, उनके क्रोध का आवेश भी एकदम शान्त हो गया। वे करीब-करीब चिल्लाते हुए बोले- रुक जाओ शिष्य, अब मैं तुम्हारे कंधों पर चढ़ा रह कर एक केवली की आशातना करते हुए पाप का भागी नहीं बनूँगा। तुम निश्यय ही केवली हो गए हो और मेरे लिये भी वन्दनीय । शिष्य तब और अधिक सरल एवं विनयावनत हो गया। शिष्य की इस सरलता और विनम्रता को आप क्या कहेंगे? अपने-अपने सोच के अनुसार अलग-अलग उत्तर हो सकते हैं। कोई कह देगा कि गुरु के हाथों ऐसे प्रहार झेलना और विनयवान बने रहना कोई व्यावहारिक बात नहीं। उससे गुरु की उद्दंडता बढ़ती ही रही। कोई कहेगा कि यह गुरु की अयोग्यता तथा तिस पर भी शिष्य की अयोग्यता का स्पष्ट प्रमाण है। शिष्य की योग्यता के बारे में दो राय नहीं हो सकती। वास्तव में यह उसकी सफल चरित्र निष्ठा का प्रमाण है। अपना चरित्र निर्माण इतना सुदृढ़ बना लिया जाए कि उसके फौलादी कवच को दुनिया की कोई भी बुराई तनिक भी भेद न सके। यों अपने जीवन में उच्च कोटि के चरित्र का निर्माण करना तथा उसके प्रति निष्ठावान बने रहना कठिन से कठिनतम परिस्थितियों के दौरान भी इससे बढ़कर अन्य कोई साधना नहीं । चरित्रशील बनने से जिस प्रकार की सहनशीलता के गुण का विकास होता है, वह साधक को सर्वांगीण उन्नति के उच्चतम शिखर तक पहुँचा देता है- सर्वदा सबका वन्दनीय । किन्तु ऐसी अनुपम सहनशीलता का विकास होगा कब ? तभी न जब वह सहनशीलता कठोर परीक्षा की अग्नि में तप कर और कुन्दन बनकर बाहर निकलेगी। और ऐसी परीक्षा लेने के लिए ही कोई न कोई तो चाहिए, जिसका प्रहार क्रूरतम और असह्य हो जाए और फिर भी चरित्रनिष्ठ उसे 107
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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