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________________ चरित्र एवं समानार्थ शब्दों की सरल सुबोध व्याख्या पक्ष हैं- एक विचार, दूसरा आचार। विचारों की विमलता एवं आचार की पवित्रता ही उन्नत चरित्र का प्रतीक बनती है। न तो विचार शून्य आचार और न ही आचार शून्य विचार का कोई अर्थ होता है, जीवन विकास के लिये दोनों समान रूप से अनुपयोगी होते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि स्वयं के विशुद्ध चिन्तन-मनन से उद्भुत विचारों को जीवन-व्यवहार में साकार रूप देना ही आचार का सच्चा लक्षण है। जिस प्रकार के आचार से राग-द्वेष रूपी दुर्भावों का अन्त किया जाए, आत्म स्वरूप पर छाये हुए कर्मों के आवरणों को हटाया जाए एवं अपनी सारी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में सरलता तथा शुद्धता का समावेश किया जाए, वही आचार उच्च तथा श्रेष्ठ कहा गया है। ऐसे आचार को जीवन में अपनाने से चरित्र निर्माण की दिशा में त्वरित गति से प्रगति संभव होती है। चरित्र की सार्थकता का जीवन पर अपूर्व प्रभाव पड़ता है चाहे वह जीवन व्यक्ति का हो अथवा किसी भी प्रकार के सामूहिक संगठन का, क्योंकि किसी भी संगठन के नियामक में और संचालक व्यक्ति ही होते हैं। हमें यह सोचना छोड़ देना चाहिए कि हम अज्ञानी और अकर्मण्य हैं। निम्नस्तरीय विचारों के कारण हमारे मानस में हीन मनोवृत्ति की जटिल ग्रंथि जड़ पकड़ लेती है और वह इस तरह संपूर्ण व्यवहार को जकड़ लेती है कि मनुष्य की अक्षमता कभी भी दूर नहीं की जा सकती है। हम भी यदि इस ग्रंथि की पकड़ में आ जाते हैं तो मानिए कि जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर पाएंगे। हमें सदैव इस विश्वास को दृढ़ बनाना चाहिये कि हमारी अन्तरात्मा में पूर्णता निहित है, जिसे अपने चरित्र बल से हम प्राप्त कर सकते हैं। सब कुछ साधने की हमारे भीतर शक्ति मौजूद है और वह है चरित्र की शक्ति। इस शक्ति का यदि पूर्ण उत्साह, विश्वास एवं साहस के साथ प्रकटीकरण किया जाए और उसे निरन्तर सुदृढ़ बनाई जाए तो अपने को अज्ञ या अल्पज्ञ मानने की हीन मनोवृत्ति का समूल अन्त हो जाएगा। मूलतः चरित्र की यथार्थता है उसकी अशुभता से शुभता की ओर गति ___ चरित्र की सरल एवं सुबोध व्याख्या करते हुए कहा गया है कि जिस शक्ति के प्रभाव से व्यक्ति का जीवन अशुभ कार्यों से निवृत्त होवे तथा वह शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करे (असुहाओ विणिवित्ती सुहे पवित्तो य जाण चरित्तं) और शुभ क्या- यह सब लोग व्याख्यात्मक दृष्टि से भले ही न जानते हो, किन्तु अनुभवात्मक दृष्टि से पूरी तरह जानते हैं। अपना और सबका भला हो वैसी वृत्ति तथा प्रवृत्ति शुभ मानी जाती है। इससे विपरीत वृत्ति तथा प्रवृत्ति अशुभ कही जाएगी। संक्षेप में चरित्र की यही व्याख्या है कि अशुभता से शुभता की ओर चलो तथा निरन्तर चलते रहो। वस्तुतः चरित्र ही एक ऐसी भव्य शक्ति तथा दिव्य ज्योति है जिसके बल और प्रकाश से मानव न केवल अशुभ कार्यों को त्यागते हुए शुभ कार्यों में प्रवृत्ति करता है, अपितु असंभव कार्यों को भी संभव बना लेता है। सूर्य का प्रकाश दिन में रहता है, रात्रि में नहीं और उसके प्रकाश में तप्तता होती है शीतलता नहीं, परन्तु चरित्रशीलता के प्रकाश में बस प्रकाश ही प्रकाश होता है- पथदर्शक एवं शीतल प्रकाश जिसकी अनुभूति मात्र सर्वत्र जीवन विकास को प्रबल प्रेरणा प्रदान करती है। सभी प्रकार के तापों तथा संतापों का हरण करने एवं आनन्द को वरण करने की शक्ति चरित्र के प्रकाश में निहित होती है। उन्नत चारित्रिक शक्ति जीवन शुद्धि के सभी क्रिया-कलापों में अपना गहरा प्रभाव 109
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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