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सुचरित्रम्
यह सम्बल सरलता से प्राप्त नहीं हो जाता है। इसके लिये दीर्घकालीन अभ्यास एवं आयाम की आवश्यकता होती है।
सोचिये कि एक शिश मां की कोख से बाहर आता है, उस समय उसके चरण अवश्य होते हैं किन्तु वे गति-शक्ति से सम्पन्न नहीं होते। उसके चरण निष्क्रिय भी नहीं होते-सोते-सोते भी शिशु उन्हें हवा में उछाला करता है जैसे कि वह अपनी आकांक्षा प्रकट कर रहा हो कि इन चरणों को गतिशील बनाना है। जब वह कुछ बड़ा होता है तो घुटनों के बल सरकता है, धीरे-धीरे कुछ दूरी पार करता है। उस छोटी, लेकिन महत्त्वपूर्ण गति से उत्साहित होता है। घुटनों के बल फिर वह बार-बार और तेजी से चलना शुरु करता है। उसका अभ्यास चलता रहता है। दूसरे दौर में वह कुछ भी पकड़ कर खड़ा होने की कोशिश करता है और किसी आत्मीय की अंगुली जब उसके सामने आती है तो उसे वह पकड़ कर अपने पांवों से चलने की कोशिश करता है। इस दौर में वह स्वतंत्र रूप से भी . उठता है, खड़ा होता है, चलने की कोशिश करता है, लड़खड़ाता है, गिर पड़ता है और फिर से उठ कर उत्साहपूर्वक उसी क्रम को दोहराता रहता है। शिशु की इस लीला में ध्यान में लेने लायक तथ्य यह दिखाई देता है कि बार-बार गिर कर भी उसके अभ्यास में शिथिलता नहीं आती, बल्कि उसका उत्साह बढ़ता रहता है और उसके उस अभ्यास की पुष्टि होती रहती है। सच तो यह है कि शिशु काल में जो अमित उत्साह दिखाई देता है, यदि उसकी स्फूर्ति वैसी ही जीवनपर्यन्त बनी रहे तो कोई शक्ति नहीं, जो उसके सम्पूर्ण विकास को प्रतिबाधित कर सके।
फिर जल्दी ही वह समय भी आता है, जब उसके चरण धरती पर जम कर आगे से आगे बढ़ने लगते हैं। शिशु से किशोर और किशोर से युवा होने पर उन चरणों में एक अद्भुत शक्ति का प्रवेश भी होता है, जो उसे धरती पर ही जम कर नहीं चलाती, बल्कि उसे सफलता पूर्वक हवा में दौड़ाती रहती है। यदि वे चरण चरित्र के बल से पुष्ट होते हैं तो उनके चलने से धरती धूजती है, पहाड़ हिलते हैं
और आसमान में राह बन जाती है। चरण वे ही सच्चे अर्थ में हितकारी मर्यादाओं में ढलते हैं तथा लोकहित में अपना सब कुछ न्यौछावर कर देने के लिये मचलते हैं। ये शरीर के चरण ही चरित्र के रूप में आत्मा के चरण बन जाते हैं-सेवक से सेव्य हो जाते हैं। चरण बल चरित्र बल बन कर सम्पूर्ण विश्व का रक्षक एवं संरक्षक बन जाता है, परन्तु इसके लिये अपेक्षित है कठिन अभ्यास एवं सोत्साह आयाम। चरण विधि, संस्कार की भूमिका एवं चरित्र गठन से व्यक्तित्व का निर्माण :
चरण चलने के प्रतीक भी होते हैं तो सम्बल भी। चलना विधिपूर्वक होना चाहिए तभी गति से प्रगति की ओर अग्रसर है, अन्यथा इस चलने का क्रम अविधिपूर्वक बन गया तो समझिए कि गति तो विगति बनेगी ही किन्तु वह पतन के ऐसे गहरे गर्त में गिरा देगी, जहां से उठ पाना और निकल पाना असाध्य नहीं तो दुस्साध्य तो अवश्य ही होगा। यह जो चलने की बात की जा रही है, वह सिर्फ बाहर के चलने की ही बात नहीं है बल्कि उससे भी कई गुनी अधिक भीतर में चलने की बात है। ये जो चरण बाहर के चलने की नजर से पांव, पग या पाद कहलाते हैं, वे ही चरण अन्तर्गति को लेकर चरित्र का रूप धर लेते हैं। चरण और चरित्र दोनों शब्द 'चर' धातु से बनते हैं। जिसका अर्थ है