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________________ चरण चमत्कार से हो सकता है कैसा भी जीवन महिमा-मंडित वह भी न जाने कितने दीर्घकाल से। क्या यह मन कभी ठिकाने पर आएगा, आज्ञा में चलेगा और सही राह में आगे बढ़ेगा? कभी वर्तमान में इन्द्रिय जन्य, आस्वादों, प्रमादों और विवादों में ग्रस्त बना रहता है तो कभी-कभी इनसे विमुख भी हो जाता है, अतीत की कल्पनाओं में रम जाता है और भविष्य की योजनाओं में निमग्न हो जाता है। .....सागर की तरंगों की तरह विचारों की तरंगें भी कभी समाप्त नहीं होती...एक के बाद एक तरंगें उठती जा रही है, पूर्व संस्कारों की चट्टानों से टकरा रही है, कभी विलीन हो रही है तो कभी मन को पीछे धकेल रही है....कभी आशा की झलक तो जैसे कभी अन्तहीन निराशा का अंधकार...चिन्ताओं, कल्पनाओं की तरंगों पर तरंगें-क्या होगा, कुछ समझ में नहीं आता। तनावों की जकड़, चिन्ताओं की पकड़ और मन की उल्टी सीधी कुलांचे, जैसे थकान बढ़ती जा रही है, दिशाहीनता का अनुभव होता है और परमात्मा को पुकारता हूँ प्रभो! बचाओ मुझे, संभालो मुझे, मेरा सहारा बनो, मुझे यह दिखाओ.... मैं इस मनमाने मन की दासता से मुक्त होना चाहता हूँ, बल्कि इस मन का मैं सच्चा स्वामी होना चाहता हूँ कि मैं अपने मन को अपने अनुशासन में रखू, अपनी आज्ञा में चलाऊँ। तब मेरे ये चरण चलेंगे, तीव्र गति से चलेंगे, सही राह पर चलेंगे और मंजिल तक पहुंच कर ही चैन लेंगे। चरणों की इस गति का सम्बल मेरा मन होगा और मन की लगाम मेरे सुदृढ़ हाथों में होगी, फिर भला राह से मैं क्यों कर भटक सकूँगा? ___.... और इस चिन्तन के साथ ही जैसे नई स्फूर्ति मेरे मन मानस में छाने लगी, गति में नई शक्ति महसूस होने लगी और चेहरे पर नई आभा झलक आई । मैं जहां गुमराह हो रहा था, वहां राह ही कहां थी? अब तो जैसे प्रकाश फैलता जा रहा है और मुझे राह नजर आने लगी है, मेरे चरण तेजी से चलने लगे हैं। परमात्मा के चरणों में पहुंच जाने को उत्सुक ह। मेरा मस्तक प्रार्थना में झुक गया है....मेरी राह में उजाला भर दो स्वामी, मेरे संजीदा मन का बल लेकर चरण चलते रहें, चलते रहें, अथक चलते रहें.....अविराम चलते रहें जब तक कि मंजिल न पा जाऊं। चरण चमत्कार से जीवन की समुन्नति सुगम हो जाए, भावनाओं की उत्कृष्ट परिणति अनुपम बन जाए और जागृत हो जाए। एक-एक पल, गति अक्लान्त, अविरल, मन, वचन, कर्म बने शुद्धधवल, चहुं ओर समग्र दृश्य-स्पर्श्य हो जाए उज्जवल....और अब मन मानने लगा है कि-सब कुछ होगा अवश्यमेव सफल। चरण बल प्राप्त होता है एक लम्बे अभ्यास एवं आयाम के पश्चात् : वर्ण व्यवस्था ने भले ही क्षुद्रों की उपमा चरणों से दी हो, किन्तु चरण केवल सेवक ही नहीं होते, वे सेव्य भी होते हैं। क्या भगवत् चरण सेव्य नहीं होते? इससे यह रहस्य भी स्पष्ट होता है कि चरण की महिमा सर्वोपरि होती है-सेवक एवं सेव्य दोनों रूपों में। साथ ही यह सिद्धान्त भी प्रतिष्ठित होता है कि जीवन की गति चरण से चरण तक ही सम्पन्नता पाती है। सेवक से सेव्य बनने की गति, नर से नारायण बनने की अनुभूति अथवा आत्मा से परमात्मा में रूपान्तरित होने की प्रतीति। यों पूरा शरीर चरणों के बल पर ही टिका रहता है और चरण गति ही जीवन की प्रगति बनती है। परन्तु चरणों का 93
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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