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चरण चमत्कार से हो सकता है कैसा भी जीवन महिमा मंडित
चलना। यह चलना बहिर्जगत् में भी होता है तथा अन्तर्जगत् में भी होता है किन्तु दोनों जगत् एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। भीतर का चलना बाहर की चाल में प्रकट हुए बिना नहीं रहता और बाहर की सुघड़ चाल भीतर के चलने को स्वस्थ बनाती है। चरण और चरित्र परस्पर गुंथे हुए क्रियाकलाप होते हैं तथा इनको विधि में ढालना चाहिये। विधि में ढले हुए चरण और चरित्र जीवन को विगति की ओर कदापि नहीं जाने देंगे।
चरण विधि को बारीकी से समझने के लिये जीवन के एक गंभीर संकट को भी बारीकी से समझ लेना चाहिये। जीवन में कई बार जो गंभीर संकट हमारे अनुभव में आते हैं, वे मूलत: बाहरी आघातों के कम अपितु वे अधिकांशत: हमारे ही घोर अन्तर्विग्रह से उठे हुए होते हैं। यह हम जान चुके हैं कि प्रत्येक व्यक्ति के मन-मानस में प्रतिक्षण देवासुर संग्राम चलता रहता है-कभी दानव हावी होता है तो कभी देवत्व की दिव्यात्मा की झलक भी दिखाई देती है। ऐसा ही मानवता का ऊंचा - नीचा बहाव चलता रहता है। हर घड़ी छिड़े इस देवासुर संग्राम के कारण विषमता एवं व्यग्रता का अनुभव होता रहता है। इस युद्ध स्थिति के तत्कालीन परिणाम भी व्यक्ति के विचार एवं आचार में अभिव्यक्त होते रहते हैं । इस दशा में चरणगति तभी स्थिरता पकड़ती है जब वह चरण विधि से संस्कारित हो ।
ये संस्कार क्या हैं? संस्कारों का चरण विधि में क्या महत्त्व है तथा चरित्र गठन में संस्कारों की क्या भूमिका होती है? इन प्रश्नों के उत्तर देने से पहले इस पर विचार करना चाहिए कि संस्कारों के स्रोत कहां-कहां हो सकते हैं? प्राणी जब जन्म लेता है, जिनकी जड़ें गहरी होती है। माता-पिता के गुण उनकी सन्तति में आते हैं-यहां तक कि शक्ल-सूरत तक पर माता-पिता की छाप होती है । उसी तरह उसके माता-पिता भी आनुवांशिक प्रभावों से प्रभावित होते हैं। इस प्रकार आज जन्म लेने वाला प्राणी आनुवांशिक श्रृंखला के माध्यम से पूरे समाज, उसके इतिहास तथा भाग्य के साथ जुड़ा हुआ होता है।
अतः
यदि ऐसा न होता तो जैविक विज्ञान, नृतत्व शास्त्र आदि का अस्तित्व ही नहीं होता । फिर पूर्वजन्म संस्कार भी आत्मा के साथ जुड़े होते हैं और उनका प्रभाव भी इस जन्म में दिखाई देता है। : चेतना का आरंभ जन्म पाने वाले जीव से मानना वैज्ञानिक दृष्टि से उचित नहीं है। आरंभ जन्म व्यक्तिमत्ता का है, गुणवत्ता का नहीं, क्योंकि संस्कारों में इन सभी स्रोतों में मिले हुए गुण व्यक्ति के इस जीवन में स्पष्टतः प्रभावपूर्ण होते हैं। ये सभी गुण संस्कार रूप ही होते हैं तथा निरन्तर संशोधित होते रहने के कारण ही इन गुणों को संस्कार का नाम दिया गया है।
व्यक्तिगत रूप से हो अथवा सामूहिक रूप से संस्कार काल एवं व्यवहार के प्रवाह में निरन्तर नवीनता पाते रहते हैं, किन्तु इस नवीनता के संबंध में ऐसे प्रयासों की आवश्यकता होती है कि यह नवीनता व्यक्ति एवं समूह के हित में हो-ऐसी न हो कि वह किसी भी रूप में किसी का अहित करे । हित वृत्ति वाले संस्कार सुसंस्कार तथा अहित वृत्ति वाले संस्कार कुसंस्कार कहलाते हैं । चरित्र का गठन हो और उसके आधार पर व्यक्तित्व का निर्माण- इसमें संस्कारों तथा उनके सु तथा कु रूपों की महती भूमिका होती है। संस्कार वह आधारभूमि है जिस पर खड़ा होकर प्राणी अपने जीवन का निर्माण करता है। आधारभूमि जितनी पुष्ट होगी, चरित्र उतना ही सुगठित होगा एवं व्यक्तित्व भी उतना ही प्रभावपूर्ण बनेगा। इसी दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि में संस्कार शुद्धि के अनेक स्तरों पर विविध
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