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क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती?
आत्मशक्ति की क्षति होती है। यह क्षति व्यक्ति की जीवनचर्या को दूषित बनाती है तो सारे सामाजिक ढांचे को भी क्षत-विक्षत करती है। अतः व्यक्ति की आचार की समस्या का सच्चा और स्थायी समाधान यही है कि वह सदाचारी बने। सदाचार ही वह आत्म बल है जो कहीं भी किसी से भी पराजित नहीं होता, बल्कि दूसरों को भी पराजित नहीं करता-उनके दिलों को जीत लेता है। ___ यह बताया जा चुका है कि सदाचार स्थायी, सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक होता है। इस दृष्टि से सदाचार का ज्ञान, अनुभव एवं स्वरूप सत्य से ही किया जा सकता है। जैसे सत्य तीनों लोकों में व्याप्त रहता है तथा तीनों काल में शाश्वत (एक जैसा) रहता है। उसी प्रकार सदाचार भी शाश्वत होता है। यह सदाचार मानव मात्र के लिये अनिवार्य है, क्योंकि अन्य प्राणी जगत् तो प्रकृति द्वारा नियंत्रित एवं नियमित रहता है। परन्तु मानव प्रकृति से ऊपर है और उसे अपनी व्यवस्था स्वयं करने की बुद्धि एवं शक्ति प्राप्त है। वह स्व-नियंत्रित होता है तथा सदाचार उसी स्व-नियंत्रित व्यवस्था का ही दूसरा नाम है।
सदाचार तथा असदाचार (अनाचार) का प्रश्न इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। प्राचीन धारणाओं के अनुसार शास्त्र सम्मत आचरण को सदाचार कहा है तथा असम्मत आचरण को असदाचार । ऐसा क्यों कहा गया है? शास्त्र का अर्थ है अन्तर्ज्ञानी की आवाज अन्तर्ज्ञान कैसे होता हैजैन मतानुसार जो चार घनघाती कर्मों को क्षय कर लेता वह अंतर्ज्ञानी (सर्वज्ञ) होता है। मूलतः भावनाओं की उत्कृष्टतम अनुभूति ही अर्न्तज्ञान को प्रस्फुटित एवं प्रकाशित करती है। इस अन्तर्ज्ञान का समग्र विश्व या मानव जाति के लिये यही सन्देश होता है कि मानव जिजिविषा एवं भोगेषणा की पशु वृत्तियों को मर्यादित करें। पशुत्व से ऊपर उठकर मानवता के स्तर तक पहुंचने के लिये मर्यादा एवं सीमा का प्रश्न प्रमुख है। मर्यादाओं की जीवन में समन्वितता का नाम ही सदाचार है।
कहा है कि जो ब्रह्मांड में है, वही पिंड में है और जो पिंड में है वही ब्रह्मांड में। मानव के पिंड में ब्रह्मांड के सभी स्थूल एवं सूक्ष्म स्पन्दनों को ग्रहण करने की क्षमता है किन्तु उस क्षमता का उपयोग तभी संभव बनता है जब मानव देह उसके लिये उतनी संस्कारित, दक्ष एवं प्रशिक्षित हो। इस देह के स्वस्थ उपयोग का प्रशिक्षक है नैतिकतापूर्ण सदाचार। यह मध्य की कड़ी है जिससे मानव बनता है। स्फिंक्स के गुरुत्मान् नर-पशु का रूपक और वह पशुत्व को मर्यादित कर देता है। इस स्तर से मानव एक प्रकार से पशुपति बन जाता है। फिर इस नैतिकता का अतिक्रमण करने के बाद वह नरत्व से नारायणत्व की दिशा में अग्रसर होता है। तब सहज ही में पूर्ण सदाचार की उपलब्धि हो जाती है।
सदाचार की आधारशिला यह है कि मानव के लिये ही सारे विधि-निषेध होते हैं क्योंकि वह एक सामाजिक प्राणी है। उससे सारा पर्यावरण भी संबंधित होता है। सारे सामाजिक संबंधों की पृष्ठभूमि में होता है कर्म का विज्ञान, जो जीवनान्तर तक चलता है। कर्म सिद्धान्त के आधार पर ही सुख एवं दुःख की फलश्रुति होती है। 'मारैलिटी' व्यावहारिक पहलू है तो मेटाफिजिक्स' उसका दार्शनिक छोर । सामाजिक मर्यादाओं (नार्स) को बनाये रखने को सामान्यता अर्थात् 'नोर्मल' रहना कहते हैं। __ आधुनिक युग में सर्वाधिक दुर्दशा हो रही है मर्यादाओं की और अन्ततः सदाचार की। पाश्चात्य संस्कृति की एक उक्ति है-वेल्थ इज लोस्ट, नथिंग इज लोस्ट, हेल्थ इज लोस्ट, समथिंग इज
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