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क्या विश्व की विकृत व्यवस्था मानवीय मूल्यों की मांग नहीं करती?
सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणां।धर्मो ही तेषामधिकोविशेषो, धर्मेणहीनाः पशुभिः समानाः।) मानव
और पशु में आहार, निद्रा, भय और मैथुन यह कि इन प्रवृत्तियों के बारे में पशु तो प्रकृति द्वारा नियंत्रित होते हैं, जिसके कारण नियमित भी होते हैं। किन्तु मानव चूंकि बुद्धि व विवेक से संपन्न होता है। अतः इन प्रवृत्तियों में स्वतंत्र होता है। पशु भोग में नियंत्रित और परतंत्र, परन्तु मानव अनियंत्रित एवं स्वतंत्र, जिसकी स्वतंत्रता स्वच्छन्दता में भी बदलती रहती है। यही मानव की अस्थिरता है और इससे ही सदाचार तथा अनाचार अथवा असदाचार का प्रश्न सदैव सामने खड़ा रहता है। अनाचार ही मानव को पशु बनाता है। सदाचार मानव का स्वरूप देता है तो गरुड़ के पंख देकर देवत्व की महिमा में ढालता है। इसी कारण सदाचार की महत्ता मानी गई है।
तीसरी झलक : आज के एक अति विकसित देश की राजधानी और वहां स्थित एक जन्तु आलय। उसमें रखे हुए हैं, भयानक जंगली जानवरों के पिंजड़ें। ऐसे पशुओं की सैंकड़ों प्रजातियाँ वहां प्रदर्शित की गई है। इन सैंकड़ों पिंजड़ों के केन्द्र में एक दिलचस्प पिंजड़ा भी रखा हुआ है। आप ताज्जुब करेंगे यह जानकर कि उस पिंजड़े में रखा हुआ क्या है? उस पिंजड़े के बाहर बड़े-बड़े हर्मों में लिखा है-'सबसे ज्यादा खतरनाक जानवर'। लोग उस पिंजड़े के सामने जाते हैं और विभ्रमित हो जाते हैं। उस पिंजड़े के भीतर ठीक सामने बहुत बड़े आकार का आईना रखा हुआ कि जो भी दर्शक वहां पहुंचता है, उसका पूरा प्रतिबिम्ब उसमें उतर आता है। इसके सिवाय उस पिंजड़े में कुछ भी नहीं है।
आदमकद आईना और सबसे ज्यादा खतरनाक जानवर-अनेक दर्शक चक्कर खा जाते हैं। समझने वाला समझ जाता है कि इस आईने में जो छवि दिखाई दे रही है यानी कि उसकी अपनी छबि-उसे ही सबसे ज्यादा खतरनाक जानवर मानने का आग्रह है। इसका यह अर्थ हुआ कि आज के सच को आईना दिखाया गया है। आज का आदमी यानी सबसे ज्यादा खतरनाक जानवर। खतरनाक का विशेषण भी समझने लायक है कि सारे क्रूर, भयानक तथा नृशंस जंगली जानवरों में सबसे ज्यादा खतरनाक।
मानव के बदलते, बिगड़ते, बनते रूप-स्वरूप की इन झलकियों की रोशनी में कुछ गहराई से समझने की कोशिश की जा सकती है। मानव ने ही गढ़े-बिगाड़े और रचे-संवारे हैं मानवीय मूल्य :
यह प्राकृतिक स्वभाव है कि अपनी ही रचना को सामान्य रूप से कोई नष्ट नहीं करता। प्राणवान रचनाओं (सन्तान) की बात तो बहुत ऊंची है, किन्तु कोई एक कलाकृति भी बनाता है तो उसके प्रति उसका कितना रक्षणीय भाव होता है। अपनी कृति अपनत्व के बोध से परिपूरित होती है और उसके लिये सदा सहेजने-संवारने की वृत्ति रहती है। किन्तु इसका अपवाद भी होता है। जहां अपनी रचना के लिये निजता की भावना होती है। वह मानवीय है तथा जहां अपनी ही रचना को बिगाड़ने या नष्ट करने की दुर्भावना पैदा होती है। उसे दानवीय कहना होगा। यह दानव अन्य कोई नही स्वयं मानव ही दानवी वृत्ति अपना कर दानव बन जाता है।
मानव और दानव का भेद समझने लायक है। अपनी सभ्यता एवं संस्कृति के उन्नयन काल में स्वयं मानव ने अपनी जीवन प्रणाली को सुघड़ बनाने के लिये वांछित गुणों का निर्धारण किया।
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