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सुचरित्रम्
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तक को उनके लिये अपराध की संज्ञा दी गई। शास्त्रों के ज्ञान और क्रियाकांड़ों की पद्धति का ठेका पुरोहित वर्ग ने ले रखा था । यह लोक बिगड़ा हुआ है सो परलोक तो सुधारा ही जाए यह आम मान्यता बनाई गई थी और प्रत्येक क्रिया या रीति शास्त्र सम्मत हो तभी परलोक सुधरेगा, यह धारणा भी आम थी । अतः पुरोहित वर्ग की चांदी थी और आम लोगों पर यह वर्ग हावी था । बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे गये साहित्य और खास करके उपन्यासों में उस समय की ग्रामीण जतना की इस बेचारगी (असहायता) का बड़ा करुणामय विवरण मिलता है। आशय यह कि पुरोहित या ब्राह्मण वर्ग ने शास्त्रों का शस्त्रों के रूप में भयंकर रीति से प्रयोग किया तथा सामान्य जन के अज्ञान का शोषण करते हुए उन्हें उत्पीड़ित किया ।
शास्त्रीय ज्ञान से सामान्य जन के विवेक को जगाने और उन्हें धार्मिक व नैतिक जीवन निर्मित करने का पुण्य कार्य किया जा सकता था ताकि जागृत सामान्य जन पूरे समाज को एक जीवन्त समाज बना सकता। किन्तु ऐसा काम निहित स्वार्थियों को कैसे अभीष्ट हो सकता था? स्वार्थी वर्ग अतीव अल्पसंख्यक होता है, किन्तु शक्ति केन्द्रों पर वह काबिज होता है जिसके माध्यम से वह बहुसंख्यक लोगों को पिछड़ा बनाता है, उन्हें दबाता, कुचलता है और अपने वर्चस्व को मनाने के लिये उन्हें विवश कर देता है। यदि व्यक्ति में चरित्रसम्पन्नता होती है तो वह समाज में वैसी परिस्थितियों को ढलने नहीं देता जिनमें साधनों का दुरुपयोग सरल हो जाता है। तब समाज में भी एक स्तर तक चरित्रशीलता बनी रहती है। ऐसा दुरुपयोग तभी रोका जा सकता है जब चरित्रहीनता के प्रसार को रोका जा सके। चरित्रहीनता के फैलाव को रोकने में जब अशक्यता पैदा हो जाती है तब चाहे समाज का क्षेत्र हो अथवा, धर्म-सम्प्रदाय का क्षेत्र, वे सब हीन स्वार्थों की पूर्ति के अखाड़ें बन जाते हैं। पुरोहित वर्ग के समान ही धर्मगुरुओं ने भी बाद में अपनी यश-महिमा बढ़ाने के हीन उद्देश्यों को लेकर धर्म के नाम पर लोगों को विभाजित किया और उन्हें कट्टरवादिता का जामा पहना कर विवेक शून्य बना दिया । यही मुख्य वजह थी कि एक ही प्रवर्तक का धर्म भी अनेकों सम्प्रदायों तथा उपसम्प्रदायों में बंट गया। स्वार्थवादिता के कारण मानव धर्म क्षत-विक्षत हुआ और समाज जुड़ने की बजाय अनेक टुकड़ों में बँट गया, जबकि ये टुकड़ें भी आपस में हमेशा किसी न किसी बात पर संघर्षशील रहने लगे। यों धर्म आन्तरिकता से हटकर बाह्य अतिवाद से ग्रसित हो गया।
विज्ञान सत्ता के भूखे भेड़ियों की दाढ़ों में जा फंसा और खून उगलने लगा :
बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से विज्ञान जैसी मानवीय शक्ति के दुरुपयोग का चक्र चल रहा है। और यह खेल-खेल रहे हैं सत्ता के भूखे भेड़िये बने शासक, प्रशासक व राजनेता ! जिनका साथ दे रहे हैं व्यवसायी - व्यापारी ! यह बताया जा चुका है कि कितने ही क्षेत्रों में जो आश्चर्यजनक वैज्ञानिक अनुसंधान एवं आविष्कार हुए हैं उनका यदि विश्व को सुविधा सम्पन्न तथा मानव को सुख संपन्न बनाने के लिये सदुपयोग किया जाता तो सफलता निश्चित थी। किन्तु जो ज्ञान की उपलब्धियों की दुर्दशा हुई, उससे भी बढ़कर दुर्दशा विज्ञान की उपलब्धियों की हो रही है। दुर्दशा इसलिये कि उसके सदुपयोग से जहां सामान्य जन को सुख-सुविधा मिलनी चाहिये थी, वहां उसके दुरुपयोग से सामान्य जन के कष्ट अधिक बढ़ गये हैं। यह कहा जा सकता है कि विज्ञान सत्ता के भूखे भेड़ियों की दाढ़ों