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________________ अब तक के विकास का पोस्टमार्टम अर्थात् मानव जीवन के यथार्थ की खोज अच्छाई का दुरुपयोग किया और उसे बुराई के रंग में रंग दिया। इस दुष्प्रवृत्ति के कारण दो दुष्परिणाम सामने आए-एक तो अच्छाइयों का असर ओझल होता गया तो दूसरा यह कि समाज के सामान्य जन के चरित्र में गिरावट आने लगी। समाज के शक्तिशाली वर्गों से होने वाला चरित्र का पतन पूरे सामाजिक क्षेत्र में फैलने लगता है तब सामान्य परिस्थितियां भी भयावह हो उठती है। व्यक्ति एवं समाज के जीवन में ऐसी कुप्रवृत्तियां घर करने लगती हैं, जिनका असर दूर करने के कार्य के लिये उत्साही कार्यकर्ताओं को एक लम्बे समय तक कठिन प्रयत्न करने होते हैं। सामाजिक जीवन के पिछड़ेपन से अभावग्रस्तता एवं चेतना-शून्यता: व्यक्ति के दुरुपयोग का कुप्रभाव जब फैल कर समाज को प्रभावित करने लगता है। तब आम लोगों का सोच-विचार और रहन-सहन पिछड़ता जाता है, जिसके घातक परिणाम अभावग्रस्तता तथा चेतनाशून्यता के रूप में सामने आते हैं। भांति-भांति की विषमताएं सामान्य जन को तन और मन दोनों से जर्जर बनाने लगती है, जिनके कारण उसके विकास के सभी द्वार बन्द होने लगते हैं। सामान्य जन तरह-तरह के अभावों में छटपटाता है तो उसकी प्रतिभा के साथ उसकी निष्ठा भी कुंठित होने लगती है। वह रोजी रोटी के चक्कर में ही इतना उलझ जाता है कि अन्य प्रवृत्तियों के लिये उसके पास न तो समझ बचती है और न ही समय। ऐसे में निहित स्वार्थियों के समूह सत्ता और सम्पत्ति के केन्द्रों पर एकाधिकार कर लेते हैं और सामान्य जन पर अधिक अन्याय एवं अत्याचार करते हैं। कभी-कभी इतना कि लम्बे अर्से तक फिर से जागृत होने और स्थितियों को बदलने की क्षमता भी उनमें नहीं बचती। आध्यात्मिक एवं धार्मिक साधना का उत्साह भी उनके टूटे मन में जगाने का काम काफी कठिन हो जाता है। अतः सामाजिक पिछड़ेपन को दूर करने के प्रति सबसे पहले प्रयास होने चाहिये कि ज्ञान एवं चरित्र की दीपशिखा उनके अन्तःकरण में प्रज्वलित हो। यह दीपशिखा ही सभी तरह के पिछड़ेपन के अंधेरे को दूर कर सकती है। इस सत्य को कभी नहीं भुलाना चाहिये कि सामाजिक पिछड़ेपन की मूल कारणभूत बहुविध विषमताएं ही होती हैं जिन्हें समभाव एवं समतापूर्ण जीवन के विचार से समाप्त की जा सकती हैं। शास्त्रों को बना दिया शस्त्र और समाज व धर्म हो गये स्वार्थों के अखाड़े: विश्व के विभिन्न देशों तथा समाज-संगठनों की गत बीसवीं शताब्दी की हलचलों पर दृष्टिपात करें तो यह समझ में आता है कि ज्ञान तथा विज्ञान का जितना विकास हुआ था, उसे सार्वजनिक हित में नियोजित करने की बजाय मानव हितों के विरुद्ध उसका कितना अधिक दुरुपयोग किया गयाशायद इतना कि उसकी अन्तिम सीमा आ पहुंची है। बीसवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध ज्ञान के धवल प्रकाश को स्वार्थों के अंधेरे में डुबोने का काल है तो उत्तरार्ध ने दिखाया है विज्ञान के दुष्प्रयोगों का भयावह दृश्य। आत्मा पर गहरी चोट पहुंचाने वाली कुचेष्टा यह रही कि शास्त्रों को शस्त्र के रूप में प्रयोग में लिया जाने लगा। प्राचीनकाल में बहुसंख्यक जनता को शूद्र होने के नाम पर वैसे ही.शस्त्रों के ज्ञान से वंचित रखा गया, बल्कि शास्त्र श्रवण 71
SR No.002327
Book TitleSucharitram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayraj Acharya, Shantichandra Mehta
PublisherAkhil Bharatvarshiya Sadhumargi Shantkranti Jain Shravak Sangh
Publication Year2009
Total Pages700
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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