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अब तक के विकास का पोस्टमार्टम अर्थात् मानव जीवन के यथार्थ की खोज
में जा फंसा है और खून उगल रहा है। __1945 में द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ का गठन हुआ। इसमें अमेरीका द्वारा जापान में अणु बम डालने पर घटित महाविनाश से विज्ञान के दुरुपयोग का भयंकर दृश्य प्रस्तुत हुआ था और सारे विश्व में आतंक फैल गया था। तब से परमाणु शस्त्रों के निर्माण की होड़-सी मच गई तथा कई राष्ट्र परमाणु शस्त्र सम्पन्न राष्ट्र बन गये। अणु अस्त्रों से भी अधिक खतरनाक रासायनिक व जैविक शस्त्र भी बने हैं और विकसित राष्ट्रों ने आत्मरक्षा के नाम पर ऐसे शस्त्रों के अम्बार खड़े कर दिये हैं। यह शस्त्रों का अम्बार इतना भीषण है कि पूरी पृथ्वी एक ही बार में विनष्ट की जा सकती है। ___यहां भी वही बात है कि यदि अणु शक्ति का सदुपयोग मानवहित एवं विश्व शान्ति के कार्यों में किया जाए तो दुनिया से गरीबी पूरी तरह से खत्म की जा सकती है। गरीबी के साथ बेरोजगारी, बीमारी और अशिक्षा का अन्त भी संभव हो सकता है। बस बात सदुपयोग की और चरित्रनिर्माण की ही उभर कर सामने आती है। ज्ञान-विज्ञान के दुरुपयोग से उपजी है घृणा, स्वार्थवादिता, कटुता और हिंसा :
प्रेम से सहयोग का जुड़ाव होता है तो घृणा से कष्टकारक टूट । व्यक्ति भी टूटता है और समाज भी टूटता है। व्यक्ति की टूट तो सबको दिखाई दे जाती है, इस कारण से उसका उपाय भी शीघ्र किया जा सकता है किन्तु समाज, संघ, संगठन या संस्थाओं की टूट के स्पष्ट होने में समय लगता है तथा राष्ट्रों में हो रही भीतरी टूट को तो जानने में भी वर्षों लग जाते हैं। इस तरह-तरह की टूट को समझना और समय से उसका उपाय करना आसान नहीं होता है। यही कारण है कि उपाय का आरंभ व्यक्ति से करने को प्राथमिकता दी जाती है। आखिर व्यक्ति ही तो इन सारी ईकाइयों की मूल ईकाई होती है। मूल ईकाई की मजबूती को सबसे बड़ी ईकाई विश्व तक फैलाने का काम तभी तो आसान हो सकता है।
ज्ञान-विज्ञान के साधनों के दुरुपयोग से विश्व, समाज एवं व्यक्ति पर कितना बुरा असर गिरता है-यह ऊपर के विवरण-विश्लेषण से स्पष्ट होता है, किन्तु यह भी समझने की बात है और ज्यादा महत्त्वपूर्ण बात है कि ऐसे दुरुपयोग के व्यापक दुष्परिणाम हुए हैं और उनके कारण आज बड़ी से लेकर छोटी ईकाई तक विकृति की कितनी कालिख बिखरी है। इसी से आभास होगा कि मनुष्य जाति का सच्चा विकास कितना बाधित हुआ है।
ज्ञान-विज्ञान के साधन तो हमारे लिये सतत उन्नति की सीढ़ियां थीं और जिन पर चढ़ कर व्यक्ति को चरित्रशील, नीतिमान तथा धार्मिक बनाया जा सकता था और जिससे समाज को प्रेम एवं सहयोग के सुखद वातावरण से संवारा जा सकता था, उन्हीं साधनों का जब शक्ति संपन्नों ने दुरुपयोग शुरु कर दिया तो उससे चाहे उनकी जन विरोधी शक्ति विनाश के मार्ग पर भले आगे बढ़ती रही हो परन्तु बहुसंख्यक समाज की कमर टूटती रही और चारित्रिक क्षमता बिखरती रही। इतना ही नहीं हुआ, बल्कि इस दुरुपयोग के जो विनाशकारी दुष्परिणाम सामने आये हैं उनके असर को पूरी तरह