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सुचरित्रम्
हिंसा ही है और वह त्याज्य है। बौद्ध धर्म का हिंसा विरोध भी वैसा ही था। हिंसा को हिंसा से रोके, बल्कि उसका अहिंसात्मक विरोध करें-इससे जैनों की अहिंसक जीवन पद्धति का रूप सामने आया। गीता की भावना का इसके साथ संगम हुआ और अहिंसा की सूक्ष्मता ने व्यापक प्रभाव डाला।
इस संदर्भ में जैन सूत्र आचारांग एवं श्रीमद् भगवतगीता की तुलना ज्ञानवर्धक है। इससे दो संस्कृतियों के समन्वय की झलक मिलती है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वेद संस्कृति एवं जैन संस्कृति में भिन्नता नहीं हैं और यदि कोई भिन्नता दृष्टिगत भी होती है तो वह भूमिका के भेद से हो सकती है, वस्तु के भेद से नहीं। दोनों का हार्द एक है। दोनों के बीच सैद्धान्तिक समन्वय भी है तो साधनात्मक समन्वय भी। इसे कुछ उदाहरणों से समझें।
जैन धर्म का मौलिक सिद्धान्त है कि आत्मा का अस्तित्व है और कर्म का कर्ता तथा भोक्ता आत्मा ही है। ईश्वर का उसमें अकर्तृत्व है। गीता इसका समर्थन करती है-जो वस्तु नहीं होती उसका किसी भी स्थिति में मान नहीं होता है, किन्तु आत्मा के इन चर्म चक्षुओं से अदृश्य रहने पर भी उसका मान होता है तो उसका अस्तित्व है उसी तरह कि जो-जो सत् हैं उनका अस्तित्व है(नाऽसतो विद्यते भावो, नाऽभावो विद्यते सतः -गीता 2-6)। यह आत्मा ही पुण्य कर्म से पुण्य का संचय करती है और पाप कर्म से पाप का संचय करती है (पुण्यः पुण्येन कर्मणा पापः पापेन कर्मजा-गीता 15-8)। जगत् का कर्तृत्व जीवों के कर्मों के सृजन के अनुसार होता है-इसमें ईश्वर का कोई कार्य नहीं। कर्मों का जीवों को फल दिलाने में भी ईश्वर की कोई भूमिका नहीं (न कर्तृत्वं न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभुः। न कर्मफल संयोगः, रचनावस्तु प्रवर्तते। -गीता, 5-14)।
इसी प्रकार साधनों का समन्वय भी दिखाई देता है। आचारांग में वर्णित मोक्ष के साधन हैं-त्याग, समभाव, स्याद्वाद, श्रद्धा, सत्य साधना, ब्रह्मचर्य, विवेक, सहिष्णुता, अहिंसा, संयम, तप आदि तो गीता में भी नामान्तर से ये ही साधन बताये गये हैं-अनासक्ति, समता, निष्काम कर्मयोग, श्रद्धा, सत्योपासना, ब्रह्मचर्य, जागृति, सहनशीलता, अहिंसा, संयम, तपश्चर्या आदि। समभाव या समता की भाव साम्यता देखिये-पंडित साधक प्रत्येक जीव के सुख-दुःख का विवेक रखकर सर्वभूतों पर समभाव धारण करता है। किसी को दुःखी देखकर हर्षित नहीं होता तो किसी को सुखी देखकर कुपित नहीं होता-(तम्हा पंडिए नो हरिसे, नो कुजे भूएहिं, जाण पडिलेह सायं समिए एयानुपस्सीआचारांग, 2-8-2) और कृष्ण पार्थ को कहते हैं-आत्माओं की समानता के भाव से जो सर्वभूतों के प्रति व्यवहार करता है और स्व या पर के सुख-दुःख में भी समभावी रहता है, वही योगी है (आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुनः सुखं वा दुःखं सः योगी परमोमतः -गीता, 6-32 )।
दो संस्कृतियों एवं धर्मों की मौलिकता के विश्लेषण का अभिप्राय यही है कि ज्ञान के विकास ने अन्ततः सभी धर्मों में, सभी दर्शनों में, सभी संस्कृतियों एवं सभ्यताओं में एकता के तत्त्वों को उभारा तथा सिद्धान्तों को विश्वहित या मानव हित की प्रासंगिकता दी। क्रमशः हिंसा से विरत होने की अभिलाषा बढ़ी और अहिंसा को सर्वत्र स्वीकृति मिलने लगी। आधुनिक युग में गांधी जी ने अहिंसा के प्रयोग का नया पक्ष प्रस्तुत किया और स्वतंत्रता आन्दोलन को अहिंसा का आधार दिया। आज सभी देशों में युद्ध को अन्तिम विकल्प माना जाने लगा है तथा वार्ताओं व संधियों को प्राथमिकता दी जाने लगी है।