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सुचरित्रम्
अपनी पीट पर से नीचे फैंक देगा। ___ उस दिन जैसा उस सुन्दरी ने चाहा, दोनों भाइयों ने किया यह सोचकर कि उसे प्रसन्न करके छल से ही महल छोड़ना होगा। उनके व्यवहार से राक्षसी सन्तुष्ट हो गई और निश्चिन्त भी। जैसा देव ने कहा था, दोनों भाई वहां पहुंच गये, घोड़े पर सवार भी हो गये और घोड़ा आकाश में उड़ने भी लगा।
तभी पीछे धुंघुरुओं की झंकार के साथ नृत्यमय संगीत लहराने लगा-दोनों के कान सिहर उठे। फिर प्रणय याचना और रुदन के स्वर गूंजे। वह होगी राक्षसी, लेकिन दोनों भाइयों ने तो उसे अद्भुत रूपवती के रूप में ही देखा था उसका सलौना चेहरा जैसे उनकी आंखों के आगे घूमने लगा। सोचने लगे-कितना मधुर रहा उसका व्यवहार, कितना सुख दिया उसने, कैसा आकर्षक है उसका रूपक्या करें, क्या न करें? जिनरक्ष ने मन ही मन निर्णय लिया-देव की नि:स्वार्थ रक्षा को समझना चाहिये और सुन्दरी के मोह में मन को नहीं फंसना चाहिये। वह स्थिर रहा, किन्तु छोटा भाई जिनपाल युवा था, उसके दिल में वह दामिनी की तरह बस गई थी। उसे भी सुरक्षित घर पहुंचना था, किन्तु सोचा प्रेम और रूप की मूर्ति को सिर्फ एक नजर भर देख लेने से क्या बिगड़ेगा? वह मन को नहीं रोक पाया और उसने पीछे गर्दन घुमा ली। देव वाक्य था-जिनपाल घोड़े के पीठ से गिरा तो राक्षसी ने उसे तलवारों की नोंक पर झेला। वह उसकी क्षत-विक्षत देह से रक्त पीने लगी। समझिए चार कोणों की बात और मानव जीवन की यथार्थता का रहस्य :
इस चतुष्कोणीय चोकोर के चार कोण हैं-1. जिनरक्ष, 2. जिनपाल, 3. रक्षक देव तथा 4. हत्यारिणी राक्षसी। पहले के दो कोण सद्गुणी सेठ जिनदत्त के पुत्र हैं श्रेष्ठ संस्कारों की छाया में पले-बढ़े और विवेक सम्पन्न युवक बने। तीसरा कोण रक्षक देव का है यानी कि जो दूसरो की रक्षा में लगा रहता है और परोपकारी होता है, वही तो देवत्त्व है। चौथा कोण हत्यारिणी राक्षसी का है जो अन्ततः हत्या करती है किन्तु सबको अपने रूप से मोहित करती है तथा विवेक को भी मोह में लपेट कर कुन्द बना देती है। कई ऐसी राक्षसी के मोह में पड कर अपनी प्राप्त श्रेष्ठ उपलब्धियों को व्यर्थ कर देते हैं और अपने इस अमूल्य जीवन को पतन के गहरे गर्त में धकेल देते हैं। कई इन प्रलोचनों की ओर आकर्षित होने के उपरान्त भी जीवन के महत्त्व को समझते हैं और अपने को सम्भाल लेते हैं। अर्थात् जीवन को सचेष्ट एवं सक्रिय बना लेते हैं। इन दोनों दिशाओं के प्रतीक हैं जिनरक्ष एवं जिनपाल। यद्यपि दोनों के जीवन की पृष्ठभूमि एक-सी थी, संस्कार एक से थे, किन्तु परीक्षा की घड़ी आने पर दोनों की दृढ़ता का जो स्वरूप सामने आया, वह एकदम विपरीत बन गया।
मानवी जीवन में एक ऐसी लक्ष्मण रेखा होती है। जिसको पार कर लेने पर सारी मर्यादाएं टूट जाती हैं और सधा हुआ जीवन बिखर जाता है। जो अपने जीवन पथ पर एक बार डगमगा जाने के बावजूद समय पर सम्भल जाता है और लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन नहीं करता, वह अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति के सहारे जीवन को फिर से संवार लेता है। गिरने और सम्भलने के बीच की बहुत कम दूरी होती है और दोनों अवस्थाओं की मनोदशा में भी अधिक अन्तर नहीं आता, परन्तु जो पतन की
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