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ङझ, घञ, इत्यादि विकल्प परवर्ग माने जाएंगे।
विवेचन-प्रश्नकर्ता के प्रश्नाक्षरों में-कख, खग, गघ, घङ, चछ, छज, जझ, झञ, टठ, ठड, डढ, ढण, तथ, थद, दध, धन, पफ, फब, बभ, भम, यर, रल, लव, शष, षस और सह इन वर्गों के क्रमशः विपर्यय होने पर परस्पर में पूर्व और उत्तरवर्ती हो जाने पर अर्थात् खक, गख, घग, घ, छच, जछ, झज, अझ, ठट, डठ; ढड, णढ, थत, दथ, धद, नध, फप, बफ, भब, मभ, रय, लर, वल, षश, सष एवं हस होने पर अभिहत प्रश्न होता है। इस प्रकार के प्रश्न में प्रायः कार्यसिद्धि नहीं होती है। केवल अभिहित प्रश्न से ही फल नहीं बतलाना चाहिए, बल्कि पृच्छक की चर्या और चेष्टा पर ध्यान देते हुए लग्न बनाकर लग्न के स्वामियों के अनुसार फल बतलाना चाहिए। यदि लग्न का स्वामी बलवान् हो तथा शुभ एवं बली ग्रहों के साथ हो या शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो इस प्रकार की प्रश्नलग्न की स्थिति में कार्यसिद्धि कहनी चाहिए। लग्न के स्वामी' पापग्रह (क्षीण चन्द्रमा, सूर्य, मंगल, शनि एवं इन ग्रहों से युक्त बुध) हों, कमजोर हों, शत्रु स्थान में हों तथा अशुभ ग्रहों से (सूर्य, मंगल, शनि, राहु और केतु से) दृष्ट एवं युत हों तो प्रश्नलग्न निर्बल होता है, ऐसे लग्न में किया गया प्रश्न कदापि सिद्ध नहीं हो सकता है। लग्न और लग्नेश के साथ कार्यस्थान और कार्येश का भी विचार करना आवश्यक होता है।
किसी-किसी का मत है कि प्रश्नलग्नेश लग्न को और कार्येश कार्यस्थान को देखे तो कार्य सिद्ध होता है। यदि लग्नेश कार्यस्थान को और कार्येश लग्नस्थान को देखे तो भी कार्य सिद्ध होता है अथवा लग्नस्थान में रहनेवाला लग्नेश कार्यस्थान में रहनेवाले कार्येश को देखे तो भी कार्य सिद्ध होता है। यदि प्रश्नकुण्डली में ये तीनों बली योग हों और लग्न या कार्यस्थान के ऊपर पूर्णबली चन्द्रमा की दृष्टि हो तो अतिशीघ्र अल्प परिश्रम से ही कार्य सिद्ध होता है। कार्यसिद्धि का एक अन्य योग यह भी है कि यदि प्रश्नलग्न शुभ ग्रह के षड्वर्ग में हो या शुभग्रह से युत हो, अथवा मेषादि विषमराशि लग्न हो तो शीघ्र ही कार्य सिद्ध होता है।
मूर्योदय अर्थात् मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक और कुम्भ प्रश्नलग्न हों और शुभग्रह-बुध, शुक्र, गुरु और चन्द्रमा लग्न में हों तो प्रश्न का फल शुभ और पृष्ठोदय अर्थात् मेष, वृष, कर्क, धनु और मकर प्रश्नलग्न हों और लग्न में पापग्रह हों तो अशुभ फल कहना चाहिए। केन्द्र (१।४।७।१०) और नवम, पंचम स्थान में अशुभ ग्रह हों और केन्द्र तथा
१. “सिंहस्याधिपतिः सूर्यः कर्कटस्य निशाकरः। मेषवृश्चिकयो मः कन्यामिथुनयोर्बुधः ॥ धनुर्मीनयोर्मन्त्री ____ तुलावृषभयोभृगुः । शनिर्मकरकुम्भयोश्च राशीनामधिपा इमे ॥"
-ज्ञानप्रदीपिका, पृ. ३ २. शत्रुवर्ग-"बुधस्य वैरी दिनकृत् चन्द्रादित्यौ भृगोररी। बृहस्पते रिपुीमः शुक्रसोमात्मजौ विना। शनेश्च रिपवः
सर्वे तेषां तत्तद्ग्रहाणि च॥” मित्रवर्ग-“भौमस्य मित्रे शुक्रज्ञौ भृगोर्शारार्किमन्त्रिणः। अङ्गारकं विना सर्वे ग्रहमित्राणि मन्त्रिणः। आदित्यस्य गुरुर्मित्रं शनेर्विद्गुरुभार्गवाः। भास्करेण विना सर्वे बुधस्य सुहृदस्तथा।। चन्द्रस्य मित्रं जीवज्ञौ मित्रवर्ग उदाहृतः॥"
-ज्ञानप्रदीपिका, पृ. २-४। ३. प्र.मू., पृ. १४॥ ४. दै.व., पृ. ११-१२
७८ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि