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होगी। तुम्हारे मन में व्यापार और युद्ध सम्बन्धी चिन्ता है, वह शीघ्र दूर होगी।"
स्वरसाधना का निरूपण भी गर्गाचार्य ने किया है। यह स्वरसाधना उत्तरकालीन स्वर-विज्ञान से भिन्न थी। यह एक यौगिक प्रणाली थी, जिसका ज्ञान एकाध ऋषि मुनि को ही था। स्वर-विज्ञान का प्रचार १३वीं शती के उपरान्त हुआ प्रतीत होता है। अष्टांगनिमित्त ज्ञान का प्रचार बहुत पहले से था और ६-१०वीं शताब्दी में इसका बहुत कुछ भाग लुप्त भी हो गया था।
इस विवेचन से स्पष्ट है कि मूक प्रश्न, मुष्टिका प्रश्न एवं लूका प्रश्न आदि का विश्लेषण चन्द्रोन्मीलन प्रश्न प्रणाली में १२वीं शती से आया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में मूक प्रश्नों का विश्लेषण योनिज्ञान विवरण द्वारा किया गया है। अतः यह निश्चित है कि यह ग्रन्थ १२वीं शताब्दी के बाद का है।
चन्द्रोन्मीलन प्रश्न प्रणाली का अन्त १४वीं शती में हो जाता है। इसके पश्चात् इस प्रणाली में रचना होना बिल्कुल बन्द हो गया प्रतीत होता है। १४वीं शती के पश्चात् रमलप्रणाली, प्रश्नलग्नप्रणाली, स्वरविज्ञान तथा केरलप्रश्नप्रणाली का प्रचार और विकास होने लग गया था। १४वीं शती के प्रारम्भ में लग्नप्रणाली का दक्षिण भारत में भी प्रचार दिखलाई. पड़ता है। अतः यह सुनिश्चित है कि केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि का रचनाकाल १२वीं शताब्दी के पश्चात् और १४वीं शताब्दी के पहले है। इस ग्रन्थ में रचयिता ने ग्रन्थकारोक्त जो शवर्ग चक्र दिया है, उससे सिद्ध है कि जब कोई भी वर्ग परिवर्तनशील दृष्टियों द्वारा अन्य वर्ग को प्राप्त हो जाता है, तो उसका फलादेश दृष्टिक्रम के अनुसार अन्यवर्ग सम्बन्धी हो जाता है। इस प्रकार का विषय-सुधार चन्द्रोन्मीलन प्रणाली में १३वीं शती में आया हुआ जंचता है। इस प्रणाली के प्रारम्भिक ग्रन्थों में इतना विकास नहीं है। अतः विषयनिरूपण की दृष्टि से इस ग्रन्थ का रचनाकाल १३वीं शताब्दी है।
रचनाशैली के विचार से आरम्भ में पाँच वर्गों का निरूपण कर अष्ट संख्याओं द्वारा सीधे-सादे ढंग से बिना भूमिका बाँधे प्रश्नों का उत्तर प्रारम्भ कर दिया गया है। इस प्रकार की सूत्ररूप प्रणाली ज्योतिषशास्त्र में ११-१२वीं शती में खूब प्रचलित थी। कई श्लोकों में जिस बात को कहना चाहिए, उसी को एक छोटे-से गद्य टुकड़े में-वाक्य में कह दिया गया है। इस प्रकार के ग्रन्थ दक्षिण भारत में ज्यादा लिखे जाते थे। अतः रचनाशैली की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ १२वीं या १३वीं शताब्दी का प्रतीत होता है। धाम्य और अधाम्य योनि का जो सांगोपांग विवेचन इस ग्रन्थ में है, उससे भी यही कहा जा सकता है कि यह १३वीं शताब्दी से बाद का बनाया हुआ नहीं हो सकता।
आत्मनिवेदन केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि का अनुवाद तथा विस्तृत विवेचन अनेक ज्योतिष ग्रन्थों के आधार पर लिखा गया है। विवेचनों में ग्रन्थ के स्पष्टीकरण के साथ-साथ अनेक विशेष बातों पर प्रकाश डाला गया है। इस ग्रन्थ को एक बार सन् १६४२ में आद्योपान्त देखा था,
प्रस्तावना: ५६