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उसी समय इसके अनुवाद करने की इच्छा उत्पन्न हुई थी। श्री जैन-सिद्धान्त-भास्कर भाग ६, किरण २ में इस ग्रन्थ का परिचय भी मैंने लिखा था। परिचय को देखकर श्री बा. कामता प्रसाद जी अलीगंज ने अनुवाद करने की प्रेरणा भी पत्र द्वारा की थी, पर उस समय यह कार्य न हो सका।
भारतीय ज्ञानपीठ काशी की स्थापना हो जाने पर श्रद्धेय प्रो. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने इसके अनुवाद तथा सम्पादन करने की मुझे प्रेरणा दी। आपके आदेश तथा अनुमति से इस ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है। मूडबिद्री के शास्त्रभण्डार से श्रीमान् पं. के. भुजबलीजी शास्त्री, विद्याभूषण ने ताड़पत्रीय प्रति भेजी, जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। इस प्रति की संज्ञा क. मू. रखी गयी है। यद्यपि 'भवन' की केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि की प्रति भी मूडबिद्री से ही नकल कर आयी थी, पर शास्त्रीजी द्वारा भेजी गयी प्रति में अनेक विशेषताएँ मिलीं। कई स्थानों में शुद्ध तथा विषय को स्पष्ट करने वाले पाठान्तर भी मिले। इस प्रति के आदि और अन्त में भी ग्रन्थकर्ता का नाम अंकित है। इस प्रति के अन्त में "इति केवलज्ञानप्रश्नचूडामणिः केवलज्ञानहोराज्ञानप्रदीपकन्नड़ः समाप्तः” लिखा है। पवर्ग, शवर्ग चक्र इसी प्रति के आधार पर रखे गये हैं, क्योंकि ये दोनों चक्र इसी प्रति में शुद्ध मिले हैं। अवशेष ग्रन्थ का मूलपाठ श्री जैनसिद्धान्त-भवन, आरा की हस्तलिपि प्रति के आधार पर रखा गया है। फुटनोट में क. मू. के पाठान्तर रखे गये हैं।
मूडबिद्री से आयी हुई ताड़पत्रीय प्रति की लिपि का वाचन मित्रवर श्री देवकुमारजी शास्त्री ने किया है, अतः मैं उनका आभारी हूँ। इस ग्रन्थ की प्रकाशन-व्यवस्था श्रीमान् प्रो. महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने की है, अतः मैं उनका विशेष कृतज्ञ हूँ। प्रूफ संशोधन पं. महादेवजी चतुर्वेदी व्याकरणाचार्य ने किया है। सम्पादन में श्रीमान् पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्री, गुरुवर्य पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री, मित्रवर प्रो. गो. खुशालचन्द्र जी एम. ए., साहित्याचार्य के कई महत्त्वपूर्ण सुझाव मिले हैं, अतः आप महानुभावों का भी कृतज्ञ हूँ।
श्री जैन-सिद्धान्त-भवन आरा के विशाल ज्योतिष विषयक संग्रह से विवेचन एवं प्रस्तावना लिखने में सहायता मिली है, अतः भवन का आभार मानना भी अत्यावश्यक है। इस ग्रन्थ में उद्धरणों के रूप में आयी हुई गाथाओं का अर्थ विषय-क्रम को ध्यान में रखकर लिखा गया है। प्रस्तुत दोनों प्रतियों के आधार पर भी गाथाएँ शुद्ध नहीं की जा सकी हैं। हाँ, विषय के अनुसार उनका भाव अवश्य स्पष्ट हो गया है।
सम्पादन में अज्ञानता एवं प्रमादवश अनेक त्रुटियाँ रह गयी होंगी, विज्ञ पाठक क्षमा करेंगे। इतना सुनिश्चित है कि इसके परिशिष्टों तथा भूमिका के अध्ययन से साधारण व्यक्ति भी ज्योतिष की अनेक उपयोगी बातों को जान सकेंगे, इसमें दोष नहीं हो सकते हैं।
नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, अनन्तचतुर्दशी वी. नि. २४७५
ज्योतिषाचार्य, साहित्यरत्न जैनसिद्धान्तभवन, आरा
६० : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि