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केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि का रचनाकाल इस ग्रन्थ में इसके रचनाकाल का कहीं भी निर्देश नहीं है। अनुमान के आधार पर ही इसके रचनाकाल के सम्बन्ध में कुछ कहा जा सकता है। चन्द्रोन्मीलनप्रश्नप्रणाली का प्रचार ६वीं शती से लेकर १३-१४वीं शती तक रहा है। यदि विजयप के पुत्र समन्तभद्र को इस ग्रन्थ का रचयिता मान लेते हैं, तो इसका रचना समय १३वीं शती का मध्य भाग होना चाहिए। विजयप के भाई नेमिचन्द्र ने 'प्रतिष्ठातिलक' की रचना आनन्द नाम के संवत्सर में चैत्र मास की पंचमी को की है। इस आधार पर इसका रचनाकाल १३वीं शती, होता है। 'केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि' में जो प्राचीन गाथाएँ उद्धृत की गयी हैं, उनके मूल ग्रन्थ का पता कहीं भी नहीं लगता है। पर उनकी विषयप्रतिपादन शैली ६-१० शती से पीछे की प्रतीत नहीं होती है। प्रतिष्ठातिलक में दी गयी प्रशस्ति के आधार पर विजयप का समय १२वीं शती आता है।
दक्षिण भारत में चन्द्रोन्मीलनप्रश्नप्रणाली का प्रचार ४-५ सौ वर्ष तक रहा है। यह ग्रन्थ इस प्रणाली का विकसित रूप है। इसमें च-त-य-क-ट-प-श-वर्ग पंचाधिकार का निरूपण किया गया है। यह विषय १०-११वीं शती में स्वतन्त्र था। सिंहावलोकन, गजावलोकन, नन्द्यावर्त, मण्डूकप्लवन, अश्वमोहित इन पाँच परिवर्तनशील दृष्टियों द्वारा चवर्ग, तवर्ग, यवर्ग, कवर्ग, टवर्ग, पवर्ग और शवर्गों को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार कोई भी वर्ग उक्त कर्मों द्वारा दूसरे वर्ग को प्राप्त हो जाता है। १०-११वीं शती में यह विषय संहिताशास्त्र के अन्तर्गत था तथा गणित द्वारा इसका विचार होता था। १२वीं शताब्दी में इसका समावेश प्रश्नशास्त्र के भीतर किया गया है तथा प्रश्नाक्षरों पर-से ही उक्त दृष्टियों का विचार भी होने लग गया। ६वीं शताब्दी के ज्योतिष के विद्वान् गर्गाचार्य ने सर्वप्रथम वर्गपंचक को परिवर्तनशील दृष्टियों का रूप प्रदान कर चन्द्रोन्मीलनप्रश्नप्रणाली में स्थान दिया। गर्गाचार्य के समय में चन्द्रोन्मीलनप्रश्नप्रणाली में केवल पंचवर्ग सम्बन्धी असंयुक्त, संयुक्त, अभिहत आदि आठ संज्ञावाली विधि ही थी। उस समय केवल वाचिक प्रश्नों के उत्तर ही इस प्रणाली द्वारा निकाले जाते थे। मूक प्रश्नों के लिए 'पाशाकेवली' प्रणाली थी। इस प्रणाली के आद्य आविष्कर्ता गर्गाचार्य ही हैं। इनका पाशाकेवली अंक प्रणाली पर है तथा मूकप्रश्नों का उत्तर निकालने के लिए इसका प्रवर्तन किया गया था। ११वीं शती में मूक प्रश्नों के निकालने का बड़ा भारी रिवाज था। उस समय इनके निकालने की तीन विधियाँ प्रचलित थीं-(१) मन्त्रसाधना (२) स्वरसाधना (३) अष्टांगनिमित्तज्ञान । इन तीनों प्रणालियों का जैन सम्प्रदाय में प्रचार था। गर्गाचार्य ने पाशाकेवली के आदि में “ओं नमो भगवति कूष्माण्डिनि सर्वकार्यप्रसाधिनि सर्वनिमित्तप्रकाशिनि, एह्येहि एह्येहि वरं देहि देहि हलि हलि मतङ्गिनि सत्यं ब्रूहि ब्रूहि स्वाहा" इस मन्त्र को सात बार पढ़कर मुख से “सत्यं वद, मृषा परिहाराय" कहते हुए तीन बार पाशा डालने का विधान बताया है। इससे सिद्ध है कि मन्त्रसाधना द्वारा ही पाशे से फल कहा जाता था। प्रथम संख्या १११ का फल बताया है-“इस प्रश्न का फल बहुत शुभ है; तुम्हारे दिन अच्छी तरह व्यतीत होंगे। तुमने मन में विलक्षण बात विचार रखी है, वह सिद्ध
५८ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि