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________________ अनभिहत, अभिघातित, आलिंगित, अभिधूमित और दग्ध ये आठ संज्ञाएँ हैं तथा आयप्रणाली में अक्षरों की ध्वज, धूम, सिंह, श्वान, वृष, खर, गज और वायस ये सज्ञाएँ बतायी हैं। फलनिरूपण में भी थोड़ा-सा अन्तर है। चन्द्रोन्मीलन में चर्या-चेष्टा को भी स्थान दिया गया है, तथा चर्या-चेष्टा के आधार पर भी फलों का प्रतिपादन किया गया है। 'आयज्ञानतिलक' के प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए आयप्रणाली की स्वतन्त्रता की ओर संकेत किया है नमिऊण नमियनमियं दत्तरसंसारसायरूतिन्न। सव्वन्नं वीरजिणं पुलिदिणिं सिद्धसंघ च॥ जं दामनन्दिगुरुणो मणयं आयाण जाणिगुल्झं। . तं आयनाणतिलए वोसिरिणा मन्नए पयडं॥२॥ आयप्रश्न प्रणाली का आविष्कर्ता सुग्रीव मुनि को बताया गया है। सुग्रीव मुनि के प्रश्नशास्त्र पर तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं, पर मुझे देखने को एक भी नहीं मिला है। आयप्रश्नतिलक, प्रश्नरत्न, आयसद्भाव के नाम सूचियों में मिलते हैं। शकुन पर भी 'सुग्रीवशकुन' नाम का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बताया जाता है। पुलिन्दिनी आय की अधिष्ठात्री देवी की स्तुति करते हुए भट्टवोसरि ने सुग्रीवमुनि का नामोल्लेख करते हुए लिखा है सुग्रीवपूर्वमुनिसूचितमन्त्रबीजैः तेषां वांसि न कदापि मुधा भवन्ति॥ आयसद्भावप्रकरण में भी सुग्रीव मुनि के सम्बन्ध में बताया गया है सुग्रीवादिमुनीन्द्रैः रचितं शास्त्रं यदायसद्भावम्। तत्सम्प्रत्यार्याभिर्विरच्यते मल्लिषेणेन॥ इससे सिद्ध है कि आय प्रणाली के प्रवर्तक सुग्रीव आदि प्राचीन मुनि थे। आयप्रणाली का प्रचार चन्द्रोन्मीलन प्रणाली से अधिक हुआ है। आयप्रणाली में प्रश्नों के उत्तरों के साथ-साथ चमत्कारी मन्त्र, यन्त्र, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष आदि बातों का विचार-विनिमय भी गर्भित किया है। एक तीसरी प्रश्नप्रणाली १४वीं, १५वीं और १६वीं शती में प्रश्नलग्न की भी जैनों में प्रचलित हुई है। उत्तर भारत में श्वेताम्बर जैनाचार्यों द्वारा इस प्रणाली में बहुत काम हुआ है। इतर आचार्यों की तुलना में जैनाचार्यों ने प्रश्नविषयक रचनाएँ इस प्रणाली के आधार पर बहुत की हैं। पद्मप्रभसूरि का 'भुवनदीपक', हेमप्रभसूरि का त्रैलोक्यप्रकाश, नरचन्द्र के प्रश्नशतक, प्रश्नचतुर्विंशिका आदि लग्नाधारित प्रश्नग्रन्थ प्रसिद्ध हैं। इन प्रश्नग्रन्थों में प्रश्नकालीन लग्न बनाकर फल बताया गया है। 'त्रैलोक्यप्रकाश' में कहा गया है कि लग्नज्ञान का प्रचार म्लेच्छों में है, पर प्रभुप्रसाद से जैनों में भी इसका पूर्ण प्रचार विद्यमान है। लग्न के गूढ़ रहस्य को जैनाचार्यों ने अच्छी तरह जान लिया है म्लेच्छेष विस्ततं लग्नं कलिकालप्रभावतः। प्रभुप्रसादमासाध जैने धर्मेऽवतिष्ठते॥६॥ ३६ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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