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________________ लग्न की प्रशंसा हेमप्रभसूरि ने अत्यधिक की है, उन्होंनें प्रश्नों का उत्तर निकालने के लिए इस प्रणाली को उत्तम माना है । उनके मत से लग्न ही देवता, लग्न ही स्वामी, लग्न ही माता, लग्न ही पिता, लग्न ही लक्ष्मी, लग्न ही सरस्वती, लग्न ही नवग्रह, लग्न ही पृथ्वी, लग्न ही जल, लग्न ही अग्नि, लग्न ही वायु, लग्न ही आकाश और लग्न ही परमानन्द है।' यह लग्नप्रणाली दिव्यज्ञान के तुल्य जीव के सुख, दुःख, हर्ष, विषाद, लाभ, हानि, जय, पराजय, जीवन, मरण का साक्षात् निरूपण करनेवाली है। इसमें ग्रहों का रहस्य, भावों - द्वादश स्थानों का रहस्य, ग्रहों का द्वादश भावों से सम्बन्ध आदि विभिन्न दृष्टिकोणों द्वारा फलादेश का निरूपण किया गया है । लग्नप्रणाली में उत्तर भारत में चार-पाँच सौ वर्षों तक कोई संशोधन नहीं हुआ है। एक ही प्रणाली के आधार से फल प्रतिपादन की प्रक्रिया चलती रही। हाँ, इस प्रणाली में परिवर्धन उत्तरोत्तर होता गया है । इस प्रणाली का सर्वांगपूर्ण और व्यवस्थित ग्रन्थ ११६० श्लोक प्रमाण में ' त्रैलोक्यप्रकाश' नाम का मिलता है । इस ग्रन्थ के प्रणयन के पश्चात् लग्नप्रणाली पर कोई सुन्दर और सर्वांगपूर्ण ग्रन्थ लिखा ही नहीं गया। यों तो १७वीं और १८वीं शती में भी लग्नप्रणाली पर दो-एक ग्रन्थ लिखे गये हैं, पर उनमें कोई नयी बात नहीं बतायी गयी । दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में दक्षिण भारत में लग्न सम्बन्धिनी प्रश्नप्रणाली जैनों में उत्तर की अपेक्षा भिन्न रूप में मिलती है। दक्षिण में लग्न, द्वादश भाव और उनमें स्थित रहनेवाले ग्रहों पर से सीधे-सादे ढंग से फल नहीं बताया गया है, बल्कि कुछ विशेष संज्ञाएँ निर्धारित कर फल कहा है । 'ज्ञानप्रदीपिका' के प्रारम्भ में बताया गया हैभूतं भव्यं वर्तमानं शुभाशुभनिरीक्षणम् । पञ्चप्रकारमार्गं च चतुष्केन्द्रबलाबलम् ॥ . आरूढछत्रवर्गं चाभ्युदयादिबलाबलम् । क्षेत्रं दृष्टि नरं नारीं युग्मरूपं च वर्णकम् । मृगादिनररूपाणि किरणान्योजनानि च । आयूरसोदयाद्यं च परीक्ष्य कथयेद् बुधः ॥ अर्थात् - भूत, भविष्य, वर्तमान, शुभाशुभ दृष्टि, पाँच मार्ग, चार केन्द्र, बलाबल, आरूढ़, छत्र, वर्ग, उदयबल, अस्तबल, क्षेत्र, दृष्टि, नर, नारी, नपुंसक, वर्ण, मृग तथा नर आदि का रूप, किरण योजन, आयु, रस, उदय आदि की परीक्षा करके बुद्धिमान को, फल कहना चाहिए । धातु, मूल, जीव, नष्ट, मुष्टि, लाभ, हानि रोग, मृत्यु, भोजन, शयन, शकुन, जन्म, कर्म, अस्त्र, शल्य-मकान में से हड्डी आदि का निकालना, कोष, सेना का आगमन, नदियों की बाढ़, अवृष्टि, अतिवृष्टि, नौका-सिद्धि आदि प्रश्नों के उत्तरों का निरूपण किया गया १. लग्नं देवः प्रभुः स्वामी लग्नं ज्योतिः परं मतम् । लग्नं दीपो महान् लोके लग्नं तत्त्वं दिशन् गुरुः ॥ लग्नं माता-पिता लग्नं लग्नं बन्धुर्निजः स्मृतम् । लग्नं बुद्धिर्महालक्ष्मीर्लग्न देवी सरस्वती ॥ लग्नं सूर्यो विधुलग्नं भौमो बुधोऽपि च । लग्नं गुरुः कविर्मन्दो लग्नं राहुः सकेतुकः॥ लग्नं पृथ्वी जलं लग्नं लग्नं तेजस्तथानिलः । लग्नं व्योम परानन्दो लग्नं विश्वमयात्मकम् ॥ - त्रैलोक्यप्रकाश, श्लो. २- ५ । प्रस्तावना : ३७
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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