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________________ अर्थात्-देवों के मुकुट में जटित मणियों की किरण से जिनके चरणयुगल शोभित हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर इस 'चूड़ामणिसार' ज्ञानदीपक को बनाता हूँ। प्रथम, तृतीय, सप्तम और नवम स्वर-अ इ ए ओ, प्रथम और तृतीय व्यंजन-क च ट त प य श, ग ज ड द ब ल स इन १८ वर्णों की आलिंगित, सुभग, उत्तर और संकट संज्ञा है। इस प्रकार अक्षरों की नाना संज्ञाएँ बतलाकर फलाफल का विवेचन किया है। ''अर्हच्चूडामणिसार' के पश्चात् प्रश्न ग्रन्थों की परम्परा जैनों में बहुत जोरों से चली। दक्षिण भारत में प्रश्न-निरूपण करने की प्रणाली अक्षरों पर ही आश्रित थी। ५वीं, ६ठी शती में 'चन्द्रोन्मीलन' नाम प्रश्न-ग्रन्थ बनाया गया है। इस ग्रन्थ का प्रमाण चार हजार श्लोक है। अब तक मुझे इसकी सात प्रतियाँ देखने को मिली हैं पर सभी अधूरी हैं। यह प्रश्नग्रन्थ अत्यधिक लोकप्रिय हुआ है। इसकी एक प्रति मुझे श्रीमान् पं. सुन्दरलाल जी शास्त्री सागर से मिली है, जिसमें प्रधान श्लोकों की केवल संस्कृत टीका है। 'ज्योतिषमहार्णव' नामक संग्रहग्रन्थ में चन्द्रोन्मीलन मुद्रित भी किया गया है। मुद्रित श्लोकों की संख्या एक हजार से भी अधिक है। श्री जैन-सिद्धान्त भवन में चन्द्रोन्मीलन की जो प्रति है, उसकी श्लोक संख्या तीन सौ है। श्री पं. सुन्दरलाल जी के पास चन्द्रोन्मीलन की दो प्रतियाँ और भी हैं, पर उनको उन्होंने अभी मुझे दिखलाया नहीं है। इसकी एक प्रति गवर्नमेण्ट संस्कृत पुस्तकालय बनारस में है, जिसकी श्लोक संख्या तेरह सौ के लगभग है। यह प्रति सबसे अधिक शुद्ध मालूम होती है। चन्द्रोन्मीलन के नाम से मेरा अनुमान है कि पाँच-सात ग्रन्थ और भी लिखे गये हैं। जैनों की ५वीं ६ठी शताब्दी की यह प्रणाली बहुत प्रसिद्ध थी, इसलिए इस प्रणाली को ही लोग चन्द्रोन्मीलन प्रश्नप्रणाली कहने लगे थे। 'चन्द्रोन्मीलन' के व्यापक प्रचार के कारण घबराकर दक्षिण भारत में 'केरल' नामक प्रश्न प्रणाली निकाली गयी है। केरल प्रश्नसंग्रह, केरल प्रश्नरत्न, केरल प्रश्नतत्त्व संग्रह आदि केरलीय प्रश्न ग्रन्थों में चन्द्रोन्मीलन के व्यापक प्रचार का खण्डन किया गया है प्रोक्तं चन्द्रोन्मीलनं दिक्वौस्तच्चाशुद्धम् । केरलीयप्रश्नसंग्रह में 'दिकवस्त्रैः' के स्थान में 'शुक्लवस्त्रैः' पाठ भी है। शेष श्लोक ज्यों का त्यों है। केरल प्रश्न संग्रह की एक हस्तलिखित ताड़पत्रीय प्रति जैन सिद्धान्त-भवन में है। इसमें 'दिक्वस्त्रैः' पाठ है, जो कि दिगम्बर जैनाचार्यों के लिए व्यवहृत हुआ है। प्रश्नशास्त्र का विकास वस्तुतः द्राविड़ नियमों के आधार पर हुआ प्रतीत होता है। अतः 'शुक्लवस्त्रैः' के स्थान में दिक्वस्त्रैः' ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। __ आठवीं, नौवीं और दसवीं शताब्दी में चन्द्रोन्मीलन प्रश्न प्रणाली के साथ-साथ 'आय' प्रश्न प्रणाली का जैनों में प्रचार हुआ। इस प्रणाली पर कई ग्रन्थ लिखे गये हैं। दामनन्दी के शिष्य भट्ट वोसरि ने आयज्ञानतिलक, मल्लिषेणाचार्य ने आयसद्भाव प्रकरण लिखे हैं। इनके अलावा आयप्रदीपिका, आयप्रश्नतिलक, प्रश्नज्ञानप्रदीप, आयसिद्धि, आयस्वरूप आदि अनेक ग्रन्थ रचयिताओं के नामों से रहित भी मिलते हैं। चन्द्रोन्मीलन और आय प्रश्न प्रणाली में मौलिक अन्तर संज्ञाओं का है। चन्द्रोन्मीलन प्रणाली में अक्षरों की संयुक्त, असंयुक्त, अभिहत, प्रस्तावना : ३५
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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