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ष ये ग्यारह वर्ण मूलाक्षर संज्ञक कहे हैं। प्रश्नाक्षरों में जीवाक्षरों की अधिकता होने पर जीव सम्बन्धिनी, धात्वक्षरों की अधिकता होने पर धातुसम्बन्धिनी और मूलाक्षरों की अधिकता होने पर मूलाक्षरसम्बन्धिनी चिन्ता होती है। सूक्ष्मता के लिए जीवाक्षरों के भी द्विपद, चतुष्पद, अपद, पादसंकुल ये चार भेद बताये हैं अर्थात् आ ए क च ट त प य श ये अक्षर द्विपद,
ऐख छठ फर ष ये अक्षर चतुष्पद; इ ओ ग ज ड द ब ल स ये अक्षर अपद औरई और झभ व ह ये अक्षर पादसंकुल संज्ञक हैं। इस प्रकार योनियों के अनेक भेद-प्रभेदों द्वारा प्रश्नों की सूक्ष्मता का वर्णन किया है ।
जैन प्रश्नशास्त्र का मूलाधार मनोविज्ञान है । वर्गविभाजन में जो स्वर और व्यंजन रखे हैं, वे अत्यन्त सार्थक और मन की अव्यक्त भावनाओं को प्रकाशित करने वाले हैं।
जैन प्रश्नशास्त्र का विकासक्रम
व्यंजन, अंग, स्वर, भौम, छिन्न, अन्तरिक्ष, लक्षण और स्वप्न ये आठ अंग निमित्तज्ञा के माने गये हैं । इनका 'विद्यानुवादपूर्व' में विस्तार से वर्णन आया है । 'परिकर्म' में चन्द्र, सूर्य एवं नक्षत्रों के स्वरूप, संचार, परिभ्रमण आये हैं । 'कल्याणवाद' में चान्द्र, नक्षत्र, सौर नक्षत्र, ग्रहण, ग्रहों की स्थिति, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त आदि बातों का निरूपण किया गया है। ‘प्रश्नव्याकरणांग' में प्रश्नशास्त्र की अनेक बातों पर प्रकाश डाला गया है। इसमें मुष्टिप्रश्न एवं मूकप्रश्नों का विचार प्रधानतया उल्लिखित है । इस कल्प के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी के मुख से निकली दिव्यध्वनि को ग्रहण करने वाले गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ने द्वादशांग की रचना एक मुहूर्त में की। उन्होंने दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान-भाव और द्रव्यश्रुत लोहाचार्य को दिया, लोहाचार्य ने जम्बूस्वामी को दिया । उनके निर्वाण के पश्चात् विष्णु, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य चौदह पूर्व के धारी हुए । उनके पश्चात् विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धार्थदेव, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह आचार्य ग्यारह अंग और उत्पादपूर्व आदि दस पूर्वी के ज्ञाता तथा शेष चार पूर्वी के एक देश के ज्ञाता हुए। उनके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पाण्डुस्वामी, ध्रुवसेन और कंसाचार्य ये पाँचों ही आचार्य ग्यारह अंग और चौदह पूर्वी के एक देश के ज्ञाता हुए। इस प्रकार प्रश्नशास्त्र का ज्ञान परम्परा रूप में कई शतियों तक चलता रहा ।
प्रश्नशास्त्र का सर्वप्रथम स्वतन्त्र ग्रन्थ 'अर्हच्चूडामणिसार' मिलता है। इसके रचयिता भद्रबाहु स्वामी बताये जाते हैं । उपलब्ध अर्हच्चूडामणिसार में ७४ गाथाएँ हैं । इसमें ग्रन्थकर्ता का नाम, प्रशस्ति आदि कुछ भी नहीं है । हाँ, उपलब्ध ग्रन्थ की भाषा और विषयविवेचन को देखने से उसकी प्राचीनता में सन्देह नहीं रहता । प्रारम्भ में मंगलाचरण करते हुए लिखा है
नमिऊण जिणसुरअणचूडामणिकिरणसोहि पयजुयलं । इय चूडामणिसारं कहिए मए जाणदीवक्खं ॥ पढमं तईयसत्तम रघसर पढमतईयवग्गवणाई । आलिंगियाहिं सुहया उत्तरसंकडअ णामाई॥२॥
३४ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि