________________
समुद्र कह सकते हैं। इन प्रवृत्तियों में प्रधान रूप से काम और गौण रूप से अन्य इच्छाओं की तरंगें उठती रहती हैं। मनुष्य का दूसरा अंश चेतन मन के रूप में है, जो घात-प्रतिघात करनेवाली कामनाओं से प्रादुर्भूत है और उन्हीं को प्रतिबिम्बित करता रहता है । बुद्धि मानव की एक प्रतीक है; उसी के द्वारा वह अपनी इच्छाओं को चरितार्थ करता है । अतः सिद्ध है कि हमारे विचार, विश्वास, कार्य और आचरण जीवन में स्थित वासनाओं की प्रतिच्छाया मात्र हैं। सारांश यह है कि संज्ञात इच्छा प्रत्यक्ष रूप से प्रश्नाक्षरों के रूप में प्रकट होती है और इन प्रश्नाक्षरों में छिपी हुई असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छाओं को उनके विश्लेषण से अवगत किया जाता है। जैनाचार्यों ने प्रश्नशास्त्र में असंज्ञात और निर्ज्ञात इच्छा सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन किया है।
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बतलाया है कि हमारे मस्तिष्क के मध्य स्थित कोष के आभ्यन्तरिक परिवर्तन के कारण मानसिक चिन्ता की उत्पत्ति होती है । मस्तिष्क में विभिन्न ज्ञानकोष परस्पर संयुक्त हैं । जब हम किसी व्यक्ति से मानसिक चिन्ता सम्बन्धी प्रश्न पूछने जाते हैं, तो उक्त ज्ञानकोषों में एक विचित्र प्रकार का प्रकम्पन होता है, जिससे सारे ज्ञानतन्तु एक साथ हिल उठते हैं । इन तन्तुओं में से कुछ तन्तुओं का प्रतिबिम्ब अज्ञात रहता है । प्रश्नशास्त्र के विभिन्न पहलुओं में चर्या, चेष्टा आदि के द्वारा असंज्ञात या निर्ज्ञात इच्छा सम्बन्धी प्रतिबिम्ब का ज्ञान किया जाता है । यह स्वयं सिद्ध बात है कि जितना असंज्ञात इच्छा सम्बन्धी प्रतिबिम्बित अंश, जो छिपा हुआ है, केवल अनुमानगम्य है, स्वयं प्रश्नकर्ता भी जिसका अनुभव नहीं कर पाया है; प्रश्नकर्ता की चर्या और चेष्टा से प्रकट हो जाता है । जो सफल गणक चर्या - प्रश्नकर्ता के उठने, बैठने, आसन, गमन आदि का ढंग एवं चेष्टा, बातचीत का ढंग, अंग स्पर्श, हाव-भाव, आकृति - विशेष आदि का मर्मज्ञ होता है, वह मनोवैज्ञानिक विश्लेषण-द्वारा भूत और भविष्यकाल सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर बड़े सुन्दर ढंग से दे सकता है। आधुनिक पाश्चात्य फलित ज्योतिष के सिद्धान्तों के साथ प्रश्नाक्षर सम्बन्धी ज्योतिषसिद्धान्त की बहुत कुछ समानता है । पाश्चात्य फलित ज्योतिष का प्रत्येक अंग मनोविज्ञान की कसौटी पर कस कर रखा गया है, इसमें ग्रहों के सम्बन्ध से जो फल बतलाया है, वह जातक और गणक दोनों की असंज्ञात और संज्ञात इच्छाओं का विश्लेषण ही है ।
सूक्ष्म फल जानने के लिए अधरोत्तर और वर्गोत्तर वाला नियम निम्न प्रकार बताया
अधरोत्तर, वर्गोत्तर और वर्गसंयुक्त अधरोत्तर इन वर्गत्रय के संयोगी नौ भंगोंउत्तरोत्तर, उत्तराधर, अधरोत्तर, अधराधर, वर्गोत्तर, अक्षरोत्तर, स्वरोत्तर, गुणोत्तर और आदेशोत्तर के द्वारा अज्ञात और निर्ज्ञात इच्छाओं का विश्लेषण किया है।
जैन प्रश्नशास्त्र में प्रश्नों के प्रधानतः दो भेद बताये हैं- वाचिक और मानसिक । - वाचिक प्रश्नों के उत्तर देने की विधि उपर्युक्त है तथा मानसिक प्रश्नों के उत्तर प्रश्नाक्षरों पर से जीव, धातु और मूल ये तीन प्रकार की योनियाँ निकालकर बताये हैं। अ आ इ ए ओ अः क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ यष ह ये इक्कीस वर्ण जीवाक्षर; उ ऊ अं पफ ब भ व स ये. तेरह वर्ण धात्वक्षर और ई ऐ ओ ङ ञ ण न म र ल
प्रस्तावना : ३३