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देने के लिए अ ए क च ट त प य श अक्षरों का प्रथम वर्ग, आ ऐ ख छ ठ थ फ र ष अक्षरों का द्वितीय वर्ग, इ ओ ग ज ड द ब ल स अक्षरों का तृतीय वर्ग, ई औ घ झ ढ ध भ व ह अक्षरों का चतुर्थ वर्ग और उ ऊ ङ ञ ण न म अं अः अक्षरों का पंचम वर्ग बताया है। आचार्यों ने इन अक्षरों के भी संयुक्त, असंयुक्त, अभिहित, अनभिहित, अभिघातित, आलिंगित, अभिधूमित और दग्ध ये आठ भेद बतलाये हैं। इन भेंदों पर से जातक के जीवन-मरण, हानि-लाभ, संयोग-वियोग एवं सुख-दुःख का विवेचन किया है। दो-चार ग्रन्थों में प्रश्न की प्रणाली लग्न के अनुसार मिलती है। यदि लग्न या लग्नेश बली हुए और स्वसम्बन्धी ग्रहों की दृष्टि हुई तो कार्य की सिद्धि और इससे विपरीत में असिद्धि होती है। भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की ग्रहस्थिति का भिन्न-भिन्न नियमों से विचार किया है। 'केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि' में आचार्य ने लाभालाभ के प्रश्न का उत्तर देते हुए लिखा है
यदि दीर्घमक्षरं प्रश्ने प्रथमतृतीयपंचमस्थानेषु दृष्टं तदेव लाभकरं स्यात्, शेषा अलाभकराः स्युः । जीवितमरणं लाभालाभं साधयन्तीति साधकाः॥ अर्थात्-दीर्घाक्षर प्रश्न में प्रथम, तृतीय और पंचम स्थान में हों तो लाभ करनेवाले होते हैं, शेष अलाभकर-हानि करनेवाले होते हैं। साधक इन प्रश्नाक्षरों पर से जीवन, मरण, लाभ और हानि आदि को सिद्ध करते हैं। इसी प्रकार जैनाचार्यों ने उत्तर, अधर, उत्तराधर एवं अधरोत्तर आदि प्रश्न के अनेक भेद करके उत्तर देने के नियम निकाले हैं। चन्द्रोन्मीलनप्रश्न में चर्या, चेष्टा एवं हाव-भाव आदि से प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं। वास्तव में जैन प्रश्नशास्त्र बहुत उन्नत है। ज्योतिष के अंगों में जितना अधिक यह शास्त्र विकसित हुआ है, उतना दूसरा शास्त्र
नहीं।
स्वप्न-जैन मान्यता में स्वप्न संचित कर्मों के अनुसार घटित होनेवाले शुभाशुभ फल के द्योतक बताये गये हैं। स्वप्नशास्त्रों के अध्ययन से स्पष्ट अवगत हो जाता है कि कर्मबद्ध प्राणिमात्र की क्रियाएँ सांसारिक जीवों को उनके भूत और भावी जीवन की सूचना देती हैं। स्वप्न का अंतरंग कारण ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय के क्षयोपशम के साथ मोहनीय का उदय है। जिस व्यक्ति के जितना अधिक इन कर्मों का क्षयोपशम होगा, उस व्यक्ति के स्वप्नों का फल भी उतना ही अधिक सत्य निकलेगा। तीव्रकर्मों के उदयवाले व्यक्तियों के स्वप्न निरर्थक एवं सारहीन होते हैं। इसका मुख्य कारण जैनाचार्यों ने यही बताया है कि सुषुप्तावस्था में भी आत्मा तो जागृत ही रहती है, केवल इन्द्रियों और मन की शक्ति विश्राम करने के लिए सुषुप्त-सी हो जाती है। जिसके उपर्युक्त कर्मों का क्षयोपशम है, उसके क्षयोपशमजन्य इन्द्रिय और मन सम्बन्धी चेतना या ज्ञानावस्था अधिक रहती है। इसलिए ज्ञान की उज्ज्वलता से निद्रित अवस्था में जो कुछ देखते हैं, उसका सम्बन्ध हमारे भूत, वर्तमान और भावी जीवन से हैं। इसी कारण स्वप्नशास्त्रियों ने स्वप्न को भूत, वर्तमान और भावी जीवन का द्योतक बतलाया है। पौराणिक
१. विशेष जानने के लिए देखें-"स्वप्न और उसका फल" -जैनसिद्धान्त भास्कर, भाग ११, किरण १
प्रस्तावना: २६