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स्वभाव पृथ्वीस्थित प्राणियों पर भी पूर्णरूप से पड़ता है। इस शास्त्र में प्रधानताझे देह, द्रव्य, पराक्रम, सुख, सुत, शत्रु, कलत्र, भाग्य, राज्यपद, लाभ और व्यय इन बारह भावों का वर्णन रहता है। इस शास्त्र में सबसे विशेष ध्यान देने लायक लग्न और लग्नेश बताये गये हैं। ये जब तक स्थिति में सुधरे हुए हैं, तब तक जातक के लिए कोई अशुभ सम्भावना नहीं होती है। जैसे-लग्न तथा लग्नेश बलवान् हैं, तो शरीर सुख, सन्ततिसुख, अधिकारसुख, सभा में सम्मान, कारोबार में लाभ तथा साहस आदि की कमी नहीं पड़ती। यदि लग्न अथवा लग्नेश की स्थिति विरुद्ध है तो जातक को सब तरह से शुभ कामों में विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं। लग्न के सहायक १२ भाव हैं। क्योंकि आचार्यों ने भचक्र को जातक का पूर्ण शरीर माना है। इसीलिए यदि जन्मकुण्डली के १२ भावों में से कोई भाव बिगड़ जाए, तो जातक को सुख में कमी पड़ जाती है। अतएव लग्न-लग्नेश, भाग्य-भाग्येश, पंचम-पंचमेश, सुख-सुखेश, अष्टम-अष्टमेश, बृहस्पति, चन्द्र, शुक्र, मंगल, बुध इनकी स्थिति तथा ग्रह स्फुट में वक्री, मार्गी, भावोद्धारक चक्र, द्रेष्काणचक्र, कुण्डली एवं नवांशकुण्डली आदि का विचार इस शास्त्र में जैनाचार्यों ने विस्तार से किया है।।
. संहिता-इस शास्त्र में भूशोधन, दिकशोधन, शल्योद्धार, मेलापक, आयाद्यानयन, ग्रहोपकरण, इष्टिकाद्वार, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, जलाशय, उल्कापात एवं ग्रहों के उदयास्त का फल आदि अनेक बातों का वर्णन रहता है। जैनाचार्यों ने संहिता ग्रन्थों में प्रतिमा-निर्माण विधि एवं प्रतिष्ठा आदि का भी विधान लिखा है। यन्त्र, तन्त्र, मन्त्र आदि का विधान भी इस शास्त्र में है।
मुहूर्त-इस शास्त्र में प्रत्येक मांगलिक कार्य के लिए शुभ मुहूर्तों का वर्णन किया गया है। बिना मुहूर्त के किसी भी मांगलिक कार्य का प्रारम्भ करना उचित नहीं है। क्योंकि समय का प्रभाव प्रत्येक जड़ एवं चेतन पदार्थ पर पड़ता है। इसीलिए हमारे जैनाचार्यों ने गर्भाधानादि अन्यान्य संस्कार एवं प्रतिष्ठा, गृहारम्भ, गृहप्रवेश, यात्रा आदि सभी मांगलिक कार्यों के लिए शुभ मुहूर्त का ही आश्रय लेना आवश्यक बतलाया है। कर्मकाण्ड सम्बन्धी प्रतिष्ठापाठ एवं आराधनादि ग्रन्थों में भी मुहूर्तों का प्रतिपादन मिलता है। मुहूर्त विषय का निरूपण करनेवाले सैकड़ों ग्रन्थ हैं। जैन और अजैन ज्योतिष की मुहूर्त प्रक्रिया में मौलिक भेद है। जैनाचार्यों ने प्रतिष्ठा के लिए उत्तराभाद्रपद, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण और रेवती ये नक्षत्र उत्तम बतलाये हैं। चित्रा, मघा, मूल, भरणी इन नक्षत्रों में भी प्रतिष्ठा का विधान बतलाया है। परन्तु 'मुहूर्तचिन्तामणि' आदि ग्रन्थों में चित्रा, स्वाति, भरणी और मूल प्रतिष्ठा में ग्राह्य नहीं बतलाये हैं। आचार्य जयसेन ने मुहूर्त के प्रकरण में क्रूरासन्न, दूषित, उत्पात, लता, विद्धपात, राशिवेध, नक्षत्रवेध, युति, बाणपंचक एवं जामित्र त्याज्य बतलाये हैं। इसी प्रकार सूर्यदग्धा और चन्द्रदग्धा आदि तिथियों का भी विश्लेषण किया है। आचार्य वसुनन्दि ने अमृतसिद्धि योग का लक्षण लिखा हैहस्तः पुनर्वसुः पुष्यो रविणा चोत्तरात्रयम्। पुष्यह्मगुरुवारेण शशिना मृगरोहिणी॥ अश्विनी रेवती भौमे शुक्रे श्रवण-रेवती। विशाखा कृत्तिका मन्दे रोहिणी श्रवणस्तथा। मैत्रवारुणनक्षत्रं बुधवारेण संयुतम्। अमृताख्या इमे योगाः प्रतिष्ठादिषु शोभनाः॥
प्रस्तावना : २७