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निरयणसारणी हो तो निरयणसूर्य के राशि और अंश के सामने जो अंक घट्यादि हों, उनमें इष्टकाल सम्बन्धी घटी, पल जोड़ देने चाहिए । यदि घटी के स्थान में ६० से अधिक हों तो अधिक को छोड़कर शेष तुल्य अंक उस सारणी में जहाँ हों, उस राशि अंश को लग्न समझना चाहिए। पूर्व और उत्तर अंशवाले घट्यादि का अन्तर कर अनुपात से कला - विकलादि का साधन करना चाहिए ।
जन्मपत्र के ग्रह - स्पष्टीकरण - जिस ग्रह को स्पष्ट करना हो, उसकी तात्कालिक से ऋण अथवा धन चालन को व्यतिरिक्ता रीति (गोमूत्रिका रीति) से गुणा करने पर जो अंशादि हों, उनको पंचांग स्थित ग्रह में ऋण या धन कर देने पर ग्रह स्पष्ट होता है । किन्तु, इन ग्रहों के स्पष्टीकरण में यह विशेषता है कि जो ग्रह वक्री हो, उसके साधन में ऋण चालन होने पर पंचांग स्थित ग्रह में धन एवं धन चालन होने पर पंचांग स्थित ग्रह में ऋण कर दिया जाता है।
चन्द्रस्पष्टीकरण - जन्मपत्र के गणित में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण गणित चन्द्रमा के स्पष्टीकरण का है। इसकी रीति जैनाचार्यों ने इस प्रकार बतायी है कि भयात और भभोग को सजातीय करके भयात को ६० से गुणा कर भभोग का भाग देने पर जो लब्ध आये, उसमें ६० से गुणा किये हुए अश्विनी आदि गत नक्षत्रों को जोड़ दें, फिर उसमें दो से गुणा करें। गुणनफल में ६ का भाग दें, जो लब्ध हो उसी को अंश मानें, शेष को फिर ६० से गुणा करें, ८ का भाग दें, जो लब्ध हो उसे कला जानें, शेष को फिर ६० से गुणा करके ६ का भाग दें, जो लब्ध हो, उसे विकला समझें । इस प्रकार चन्द्रमा के राश्यंशादि होंगे ।
लग्न ग्रहस्पष्ट एवं भयात- भभोग के साधन के अनन्तर द्वादश भावों का साधन करना चाहिए। तथा इसी भयात और भभोग पर से विंशोत्तरी, योगिनी एवं अष्टोत्तरी आदि दशाओं का साधन करना चाहिए। जैनाचार्यों ने प्रधानतया विंशोत्तरी का कथन किया है ।
जैन फलितज्योतिष
इसमें ग्रहों के अनुसार फलाफल का निरूपण किया जाता है । प्रधानतया इसमें ग्रह, नक्षत्रादि की गति या संचार आदि को देखकर प्राणियों की भावी दशा, कल्याण-अकल्याण आदि का वर्णन होता है । इस शास्त्र में होराशास्त्र, संहिताशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, सामुद्रिकशास्त्र, प्रश्नशास्त्र, स्वप्नशास्त्र एवं निमित्तशास्त्र आदि हैं।
होरा - इसका अर्थ है लग्न अर्थात् लग्न पर से शुभ-अशुभ फल का ज्ञान कराना होरा शास्त्र का काम है। इसमें जातक के उत्पत्ति के समय के नक्षत्र, तिथि, योग, करण आदि का फल अत्युत्तमता के साथ बताया जाता है। जैनाचार्यों ने इसमें ग्रह एवं राशियों के वर्णस्वभाव, गुण, आकार-प्रकार आदि बातों का प्रतिपादन किया है। जन्मकुण्डली का फल बतलाना इस शास्त्र का मुख्य उद्देश्य है । आचार्य श्रीधर ने यह भी बतलाया है कि आकाशस्थ राशि और ग्रहों के बिम्बों में स्वाभाविक शुभ और अशुभपना मौजूद है; किन्तु उनमें परस्पर साहचर्यादि तात्कालिक सम्बन्ध से फल- विशेष शुभाशुभ रूप में परिणत हो जाता है, जिसका
२६ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि