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आर्यभट्ट की भूमिका एवं अंग्रेजी नोट्स में इस बात का कुछ संकेत भी किया है । तथा आर्यभट्ट ने भी जैन युग की उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी सम्बन्धी कालगणना को स्वीकार किया है । आर्यभट्टी के निम्न श्लोक से यह बात स्पष्ट है
उत्सर्पिणी युगार्धं पश्चादवसर्पिणी युगार्धं च । मध्ये युगस्य सुषमा आदावन्ते दुःसमान्यंसात् ॥
आर्यभट्ट की संख्या गणना भी जैनाचार्यों की संख्या गणना के समान ही है । 'सूर्यप्रज्ञप्ति' में जिस वर्गाक्षर क्रम से संख्या का प्रतिपादन किया है, वही क्रम आर्यभट्ट का भी है ।
प्राचीन जैन गणित ज्योतिष का एक और ग्रन्थ है, जिसका परिचय सिंहसूरि विरचित लोकतत्त्वविभाग में निम्न प्रकार मिलता है
वैवे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे राजोत्तरेषु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे | ग्रामे च पाटलिकनामनि पाण ( पाण्ड्य ) राष्ट्रे शास्त्रं पुरा लिखितवान्मुनिसर्वनन्दी ॥
इससे स्पष्ट है कि सर्वनन्दी आचार्य का गणित - ज्योतिषका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ रहा होगा, जिसमें लोकवर्णन के साथ-साथ गणित के भी अनेक सिद्धान्त निबद्ध किये गये होंगे। आठवीं शताब्दी में पाटीगणित सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ लिखे गये हैं । इस काल में महावीराचार्य ने 'गणितसारसंग्रह', 'गणितशास्त्र' एवं 'गणितसूत्र' ये तीन ग्रन्थ प्रधान रूप से लिखे हैं। ये आचार्य गणित के बड़े भारी उद्भट विद्वान् थे । इनकी वर्ग करने की अनेक रीतियों में निम्नलिखित रीति अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और भारतीय गणित में उल्लेख योग्य हैहन्याच्छेषपदैर्द्विगुणमन्त्यमुत्सार्य । करणीयो विधिरयं वर्गे ॥
कृत्वान्त्यकृतिं शेषानुत्सार्येवं
अर्थात्-अन्त्य अंक का वर्ग करके रखना फिर जिसका वर्ग किया है, उसको दूना करके शेष अंकों से गुणा कर एक अंक आगे हटाकर रखना । इसी प्रकार अन्त तक वर्ग करके जोड़ देने से पूर्ण राशि का वर्ग होता है। इस वर्ग करने के नियम में हम उपपत्ति (वासना) अन्तर्निहित पाते हैं। क्योंकि
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ग)
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क + २क़ग+गरे
अ े = ( क + ग ) २ ( क + ग ) ( क + ग) अ क + क़ग + क़ग गरे इससे स्पष्ट है कि उक्त राशि में अन्त्य अक्षर क का वर्ग करके वर्गित अक्षर क को दूना कर आगे वाले अक्षर ग से गुणा किया है तथा अन्त्य के अक्षर ग का वर्ग कर जोड़ दिया है। इस प्रकार उक्त सूत्र में बीजगणितगत वासना भी अन्तर्निहित है ।
दशमी शताब्दी में कवि राजकुञ्जर ने कन्नड़ भाषा में 'लीलावती' नाम का महत्त्वपूर्ण गणित ग्रन्थ लिखा है । 'त्रिलोकसार' एवं 'गोम्मटसार' में गणित सम्बन्धी कई महत्त्वपूर्ण नियम आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने बताये हैं । वस्तुतः जीवा, चाप, बाण और क्षेत्रफल सम्बन्धी गणित में ये आचार्य पूर्ण निष्णात थे । जैनाचार्यों ने ज्योतिष सम्बन्धी गणित ग्रन्थों की रचना संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, तमिल एवं मलयालम आदि भाषाओं में भी की
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क ( क + ग ) + ग ( क +
प्रस्तावना : १७