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________________ सम्बन्ध होता है, इसका ज्ञान भी गणित प्रक्रिया से ही सम्भव है। जैनाचार्यों ने गणित ज्योतिष सम्बन्धी विषय का प्रतिपादन करने के लिए पाटीगणित, रेखागणित, बीजगणित, त्रिकोणमति, गोलीयरेखागणित, चापीय एवं वक्रीय त्रिकोणमिति, प्रतिभागणित, शृंगोन्नतिगणित, पंचाङ्गनिर्माणगणित, जन्मपत्रनिर्माण गणित, ग्रहयुति, उदयास्त सम्बन्धी गणित एवं यन्त्रादि साधन सम्बन्धी गणित का प्रतिपादन किया है। जैन पाटीगणित-इसके अन्तर्गत परिकर्माष्टक सम्बन्धी गणित-जोड़, बाकी, गुणा, भाग, वर्ग, वर्गमूल, घन एवं घनमूल आदि हैं। इसी प्रकार श्रेणीविभागसम्बन्धी गणित के भी अनेक भेद-प्रभेद बताये हैं जैसे-युगोत्तरश्रेणी, चितिघन, वर्गचितिघन, घनचितिघन आदि हैं। चितिघन से किसी स्तूप, मन्दिर एवं दीवार आदि की ईंटों का हिसाब आसानी से किया जा सकता है। गुणोत्तर श्रेणी के सिद्धान्तों को भी महावीराचार्य ने 'गणितसार' नामक ग्रन्थ में विस्तार से बताया है। 'गणितसारसंग्रह' में विलोमगणित या व्यस्तविधि, त्रैराशिक, स्वांशानुबन्ध, स्वांशापवाह, इष्टकर्म, द्वीष्टकर्म, एकादिभेद, क्षेत्रव्यवहार, अंकपाश एवं समय-दूरी सम्बन्धी प्रश्नों की क्रियाएँ विस्तारपूर्वक बतायी गयी हैं। जैनगणित के विकास . का. स्वर्णयुग छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक है। इसके पूर्व प्रजातन्त्र रूप से एतद्विषयक रचना प्रायः अनुपलब्ध है। हाँ, फुटकर रूप में आगमसम्बन्धी ग्रन्थों में गणित के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त निबद्ध किये गये हैं। 'षट्खण्डागम' के सूत्रों में भी गणित के बीजसूत्र मिलते हैं। चौथी शताब्दी के लगभग की रचना 'तिलोयपण्णत्ति' में बीजगणित, अंकगणित एवं रेखागणित सम्बन्धी अनेक नियम हैं। संकलित घन निकालने के लिए दिये गये निम्न सिद्धान्त गणित दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं पदवग्गं चयपहदं दुगुणिदगच्छेण गुणिदमुहजुत्ते। वड्ढिहदपदविहीणं दलिदं जाणिज्ज संकलिदं ॥७६॥ पदवग्गं पदरहिदं चयगुणिदं पदहदादिजुगमद्धं । मुहदलयहदपदेणं संजुत्तं होदि संकलिदं ॥१॥ . अर्थात्पद के वर्ग को चय से गुणा करके उसमें दुगुने पद से गुणित मुख को जोड़ देने पर जो राशि उत्पन्न हो, उसमें से चय से गुणित पद प्रमाण को घटाकर शेष को आधा कर देने पर प्राप्त हुई राशि के प्रमाण संकलित घन होता है ॥७६॥ पद का वर्गकर उसमें से पद के प्रमाण को कम करके अवशिष्ट राशि को चय के प्रमाण से गुणा करना चाहिए, पश्चात् उसमें से पद से गुणित आदि को मिलाकर और फिर उसका आधा कर प्राप्त राशि में मुख के अर्ध भाग से गुणित पद के मिला देने पर संकलित घन का प्रमाण निकलता है ॥१॥ उपर्युक्त दोनों ही नियम गणित में महत्त्वपूर्ण और नवीन हैं। तुलनात्मक दृष्टि से आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त और भास्कर जैसे गणितज्ञों के नियम भी उक्त नियमों की अपेक्षा स्थूल हैं। आर्यभट्टी ग्रन्थ का अवलोकन करने से मालूम होता है कि यह आचार्य भी जैन गणित के वर्गमूल और घनमूल सम्बन्धी सिद्धान्तों से अवश्य प्रभावित हुए हैं। डॉ. कर्ण साहब ने १६ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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