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जैन ज्योतिष की प्राचीनता उसकी नक्षत्रगणना से भी सिद्ध होती है । प्राचीनकाल में कृत्तिका से नक्षत्रगणना की जाती थी, पर मेरा विचार है कि अभिजित्वाली नक्षत्रगणना कृत्तिकावाली नक्षत्रगणना से प्राचीन है। जैन ग्रन्थों में अभिजित्वाली नक्षत्रगणना वर्तमान है । कृत्तिका से नक्षत्रगणना का प्रयोग भी प्राचीन ज्योतिषग्रन्थों में मिलता है तथा चान्द्र नक्षत्रों की अपेक्षा सावन नक्षत्रों का विधान अधिक है ।
जैन संवत्सर - प्रणाली को देखने से प्रतीत होता है कि इसका प्रयोग प्राचीन भारत में ई. पू. दसवीं शती से भी पहले था । वेदों में जो संवत्सर के नाम आये हैं, जैन ग्रन्थों में उनसे भिन्न नाम हैं। यह संवत्सर की प्रणाली अभिजित् नक्षत्र पर आश्रित है । नाक्षत्रसंवत्सर, युगसंवत्सर, प्रमाणसंवत्सर और शनिसंवत्सर । बृहस्पति जब सभी नक्षत्रसमूह को भोगकर पुनः अभिजित् नक्षत्र पर आता है, तब महानाक्षत्र संवत्सर होता है ।
'षट्खण्डागम' धवला टीका में रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, दैत्य, वैरोचन, वैश्वदेव, अभिजित्, रोहण, बल, विजय, नैऋत्य, वरुण, अर्यमन् और भाग्य - ये पन्द्रह मुहूर्त आये हैं । मुहूर्तों की नामावली टीकाकार की अपनी नहीं है, उन्होंने पूर्व परम्परा से प्राप्त श्लोकों को उद्धृत किया है। अतः मुहूर्तचर्चा पर्याप्त प्राचीन प्रतीत होती है ।
जैन ज्योतिष के भेद-प्रभेदों का दिग्दर्शन
'षट्खण्डागम' की धवला टीका में प्राप्त प्राचीन उद्धरण, तिलोयपण्णत्ती, जम्बूद्वीपपण्णत्ती, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, ज्योतिष्करण्डक तथा आगम ग्रन्थों में प्राप्त ज्योतिष चर्चा के अतिरिक्त इस विषय के सैकड़ों स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं । नक्षत्रों के सम्बन्ध में जितना ऊहापोह जैनाचार्यों ने किया है, उतना अन्य लोगों ने नहीं । 'प्रश्नव्याकरणांग' में नक्षत्र योगों का वर्णन विस्तार के साथ किया है। इसमें नक्षत्रों के कुल, उपकुल और कुलोपकुलों का निरूपण कर हुए बताया है – “धनिष्ठा, उत्तराभाद्रपद, अश्विनी, कृत्तिका, मृगशिरा, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाखा, मूल एवं उत्तराषाढ़ा - ये नक्षत्र कुल संज्ञकः श्रवण, पूर्वाभाद्रपद, रेवती, भरणी, रोहिणी, पुनर्वसु, आश्लेषा, पूर्वाफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, ज्येष्ठा एवं पूर्वाषाढ़ा ये नक्षत्र उपकुल संज्ञक और अभिजित्, शतभिषा, आर्द्रा एवं अनुराधा कुलोपकुल संज्ञक हैं।” यह कुलोपकुल का विभाजन पूर्णमासी को होनेवाले नक्षत्रों के आधार पर किया गया है।
इस वर्गीकरण का स्पष्टीकरण करते हुए बताया है कि श्रावणमास के धनिष्ठा, श्रवण और अभिजित्; भाद्रपद मास के उत्तराभाद्रपद, पूर्वाभाद्रपद और शतभिषा; आश्विन मास के अश्विनी और रेवती; कार्तिक मास के कृत्तिका और भरणी; अगहन या मार्गशीर्ष मास के मृगशिरा और रोहिणी; पौष मास के पुष्य, पुनर्वसु और आर्द्रा; माघ मास के मघा और आश्लेषा; फाल्गुन मास के उत्तराफाल्गुनी और पूर्वाफाल्गुनी; चैत्र मास के चित्रा और हस्त;
१. देखें - धवला टीका, ४ जिल्द, पृ. ३१८
२. 'ता कहं ते कुला उवकुला कुलावकुला आहितेति वदेज्जा ? तत्थ खलु इमा बारस कुला बारस उवकुला चत्तारि कुलावकुला पण्णत्ता... ।” - प्रश्न व्याकरणांग १० / ५
१४ : केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि