SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थ-प्रश्नाक्षर तवर्ग के हों तो जलचर पक्षी और पवर्ग के हों तो थलचर पक्षी की चिन्ता कहनी चाहिए। पक्षियों के नाम अपनी बुद्धि के अनुसार बतलाना चाहिए। इस प्रकार पक्षियोनि का निरूपण समाप्त हुआ। विवेचन-यदि प्रश्नलग्न मकर या मीन हो और उन राशियों में शनि या मंगल स्थित हों तो वनकुक्कुट और काक सम्बन्धी चिन्ता; अपनी राशियों में-वृष और तुला में शुक्र हो तो हंस, बुध हो तो शुक, चन्द्रमा हों तो मोर सम्बन्धी चिन्ता कहनी चाहिए। अपनी राशि-सिंह में सूर्य हो तो गरुड़बृहस्पति अपनी राशि-धनु और मीन में हो तो श्वेत रंग का पक्षी; बुध अपनी राशि-कन्या और मिथुन में हो तो मुर्गा; मंगल अपनी राशि-मेष और वृश्चिक में हो तो उल्लू एवं राहु धनु और मीन में हो तो भरदूल पक्षी की चिन्ता कहनी चाहिए। सौम्य ग्रहों-बुध, चन्द्र, गुरु, और शुक्र के लग्नेश होने पर सौम्य-पक्षी की चिन्ता और क्रूर ग्रहों-रवि, शनि और मंगल के लग्नेश होने पर क्रूर पक्षियों की चिन्ता समझनी चाहिए। इस प्रकार लग्न और लग्नेश के विचार से पक्षि योनि का निरूपण करना आवश्यक है। प्रश्नाक्षर और प्रश्नलग्न इन दोनों पर-से विचार करने पर ही सत्यासत्य फल का कथन करना चाहिए। एकांगी केवल लग्न या केवल प्रश्नाक्षरों का विचार अधूरा रहता है। आचार्य ने इसी अभिप्राय से “तत्र विशेषा ज्ञातव्याः” इत्यादि कहा है। राक्षसयोनि के भेद कर्मजाः योनिजाश्चेति राक्षसा' द्विविधाः। तवर्गे कर्मजाः। शव योनिजाः। तत्र नाम्ना विशेषतो ज्ञेयाः । इति द्विपदयोनिश्चतुर्विधः। अर्थ-राक्षसयोनि के दो भेद हैं-कर्मज और योनिज। तवर्ग के प्रश्नाक्षर होने पर कर्मज और शवर्ग के प्रश्नाक्षर होने पर योनिज राक्षसयोनि होती है। नाम से विशेष प्रकार के भेदों को जानना चाहिए। इस प्रकार द्विपद योनि के चारों भेदों का कथन समाप्त हुआ। विवेचन-भूत, प्रेतादि राक्षस कर्मज कहे जाते हैं और असुरादि को योनिज कहते हैं। यद्यपि सैद्धान्तिक दृष्टि से भूतादि व्यन्तरों के भेदों में से हैं, पर यहाँ पर राक्षस सामान्य के अन्तर्गत ही व्यन्तर के समस्त भेदों तथा भवनवासियों के असुरकुमार, वातकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमारों को रखा है। ज्योतिषशास्त्र में निकृष्ट देवों को राक्षस संज्ञा दी गयी है। रत्नप्रभा के पंचभाग में असुरकुमार और राक्षसों का निवास स्थान बताया गया है। शास्त्रों में व्यन्तर देवों के निवासों का कथन भवनपुर, आवास और भवन के नामों से किया गया है, अर्थात् द्वीप-समुद्रों में भवनपुर; तालाब, पर्वत और वृक्षों पर आवास एवं चित्रा पृथ्वी के नीचे भवन हैं। ज्योतिषी को प्रश्नकर्ता की चर्या और चेष्टा से उपर्युक्त स्थानों में १. तुलना-के. प्र, र. पृ. ६२। ग.म. पृ. । च.प्र. श्लो. २. १-६३। २. यवर्गे-ता. मू.। ३. विशेषः-क. मू.। ४. ज्ञेया इति पाठो नास्ति-क. मू.। १०२ : केव जानप्रश्नचूडामणि
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy