SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है। जीव प्रश्नाक्षर-अ आ इ ओ अः ए क ख ग घ च छ ज झ ट ठ ड ढ य श ह होने पर पृच्छक की जीवसम्बन्धी चिन्ता कहनी चाहिए। लेकिन जीवयोनि के द्विपद, चतुष्पद, अपद और पादसंकुल ये चार भेद होते हैं। अतः जीवविशेष की चिन्ता का ज्ञान करने के लिए द्विपद के देव, मनुष्य, पक्षी और राक्षस ये चार भेद किये गये हैं। मनुष्य योनि सम्बन्धी प्रश्न के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्त्यज इन पाँचों भेदों द्वारा विचार-विनिमय कर वर्ण-विशेष का निर्णय करना चाहिए। फिर प्रत्येक वर्ण के पुरुष, स्त्री और नपुंसक ये तीन भेद होते हैं, क्योंकि ब्राह्मण वर्ण सम्बन्धी प्रश्न होने पर पुरुष, स्त्री आदि का निर्णय भी करना आवश्यक है। पुनः पुरुष, स्त्री आदि भेदों के भी बाल्य, युवा और वृद्ध ये तीन अवस्था सम्बन्धी भेद हैं तथा इनमें से प्रत्येक के गौर, श्याम और कृष्ण रंगभेद एवं सम, दीर्घ और कुब्ज ये तीन आकृति सम्बन्धी भेद हैं। इस प्रकार मनुष्य योनि के जीव का अक्षरानुसार निर्णय करना चाहिए। उदाहरण-जैसे किसी आदमी ने प्रातः काल ६ बजे आकर पूछा कि मेरे मन में क्या चिन्ता है? ज्योतिषी ने उससे फल का नाम पूछा तो उसने जामुन बताया। .जामुन इस प्रश्न वाक्य का विश्लेण किया तो ज् + आ + म् + उ + न् + अ यह रूप हुआ। इसमें ज् + आ + अ ये तीन जीवाक्षर, न् + म् ये दो मूलाक्षर और उ धात्वक्षर है। "प्रश्ने जीवाक्षराणि धात्वक्षराणि मूलाक्षराणि च परस्परं शोधयित्वा योऽधिकः स एव योनिः" इस नियमानुसार जीवाक्षर अधिक होने से जीव योनि हुई, अतः जीवसम्बन्धी चिन्ता कहनी चाहिए। पर किस प्रकार के जीव की चिन्ता है? यह जानने के लिए ज् + आ + अ इन विश्लेषित वर्गों में 'ज' अपद, 'आ' चतुष्पद और 'अ' द्विपद हुआ। यहाँ तीनों वर्ण भिन्न-भिन्न संज्ञक होने के कारण ‘योऽधिकः स एव योनिः' नहीं लगा, किन्तु प्रथमाक्षर की प्रधानता मानकर चतुष्पद सम्बन्धी चिन्ता कहनी चाहिए। इस प्रकार उत्तरोत्तर मनुष्य योनि सम्बन्धी चिन्ता का निर्णय करना चाहिए। इस प्रकार के प्रश्नों का विचार करते समय इस बात का सदा ध्यान रखना चाहिए कि जब किसी खास योनि का निश्चय नहीं हो रहा हो, उस समय प्रश्नवाक्य के आदि-अक्षर से ही योनि का निर्णय किया जाता है। पक्षियोनि के भेद अथ पक्षियोनिः। तवर्गे जलचराः। पवर्गे स्थलचराः। तत्र नाम्ना विशेषः ज्ञातव्याः। इति पक्षियोनिः। १. तुलना-के. प्र. र. पृ. ६१-६२ । ग. म. पृ. ८ । चं. प्र. श्लो. २८७-२८८ । ज्ञा. प्र. पृ. २१-२२ । प्र. कौ. पृ. २। विशेष फलादेश के लिए पक्षी चक्र-"चंचुमस्तककण्ठेषु हृदयोदरपत्सु च । पक्षयोश्च त्रिकं चैव शशिभादि न्यसेद् बुधः। चंचुस्थे नामभे मृत्युः शीर्षे कण्ठोदरे हृदि। विजयः क्षेमलाभश्च भंगदं पादपक्षयोः”–न. र. पृ. २१३; पक्षिशेष खेशर ५० हतं दिवतवि ग्रामचरः, अरण्यचरः, अम्बुचरः। खेशरहतं ५०, दीप्तरवि, १२ हृतं म १, शुकः २, पिकः ३, हंसः ४, काकः ५, कुक्कुटः ६, चक्रवाकः ७, गुल्लिः८, मयूरः ६, सालुवः १०, परिवाणः ११, ककोरले १२, लावगे १३, बुसले ०। अरण्यखगशेष अद्रिशर ५७ हतं दिवत वि-स्थूलखगः। स-मध्यमखगः ० । सूक्ष्मखगः । स्थूलखगशेष ताराहतं २७, दिवत १, बेरुण्डः २, रणवक्कि ३, हेब्बल्लिः ४, गरुड़: ५. क्रौञ्चः ६, कोंगिडिः ७. बकः ०, गूगे० । मध्यमखगशेषम्” ।-के. हो. ह. पृ. ८१। २. ज्ञातव्या इति पाठो नास्ति-क. मू.। केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि : १०१
SR No.002323
Book TitleKevalgyan Prashna Chudamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2000
Total Pages226
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy