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रहनेवाले देवों का निरूपण करना चाहिए अथवा लग्नेश और लग्नसप्तम के सम्बन्ध से उक्त देवों का निरूपण करना चाहिए अर्थात् लग्नेश मंगल हो और सप्तम भाव में रहनेवाले बुध एवं रवि के साथ इत्थशाल योग हो तो भवनपुर में रहनेवाले निकृष्ट देवों-राक्षसों की चिन्ता, शनि लग्नेश होकर सप्तमेश शुक्र और सप्तम भावस्थ गुरु के साथ कम्बूल योग कर रहा हो तो आवास में रहनेवाले राक्षसों की चिन्ता एवं राहु और केतु हीनबल हों तथा बृहस्पति का रवि के साथ मणऊ योग हो, तो भवन में रहनेवाले राक्षसों की चिन्ता कहनी चाहिए।
चतुष्पद योनि के भेद अथ चतुष्पदयोनिः२-खुरी नखी दन्ती शृंगी चेति चतुष्पदाश्चतुर्विधाः। तत्र आ ऐ खुरी, छठा नखी, थ फा दन्ती, र षा शृंगी।
अर्थ-खुरी, नखी, दन्ती और शृंगी ये चार भेद चतुष्पद योनि के हैं। यदि आ और ऐ स्वर प्रश्नाक्षर हों तो खुरी, छ और ठ प्रश्नाक्षर हों तो नखी, थ और फ प्रश्नाक्षर हों तो दन्ती और र एवं ष प्रश्नाक्षर हों तो शृंगी योनि कहनी चाहिए।
विवेचन-लग्न स्थान में मंगल की राशि हो और त्रिपाद दृष्टि से मंगल लग्न को देखता हो तो खुरी, सूर्य की राशि-सिंह लग्न हो और सूर्य लग्न को पूर्ण दृष्टि से देखता हो या लग्न स्थान में हो तो नखी, मेष राशि में शनि स्थित हो अथवा लग्न स्थान के ऊपर शनि की पूर्ण दृष्टि हो तो दन्ती एवं मंगल कर्क राशि में स्थित हो अथवा मकर में स्थित हो और लग्न स्थान के ऊपर त्रिपाद या पूर्ण दृष्टि हो तो शृंगी योनि कहनी चाहिए।
प्रस्तुत ग्रन्थानुसार प्रश्न श्रेणी के आद्य वर्ण की जो मात्रा हो, उसी के अनुसार खुरी, नखी, दन्ती और शृंगी योनि का निरूपण करना चाहिए। केरलादि प्रश्न ग्रन्थों के मतानुसार अ आ इ ये तीन स्वर प्रश्नाक्षरों के आदि में हों तो खुरी; ई उ ऊ ये तीन स्वर प्रश्नाक्षरों के आदि में हों तो नखी, ए ऐ ओ ये तीन स्वर प्रश्नाक्षरों के आदि में हों तो दन्ती और औ अं अः ये तीन स्वर प्रश्नाक्षरों के आदि में हों तो शृंगी योनि कहनी चाहिए।
खुरी, नखी, दन्ती और शृंगी योनि के भेद और उनके लक्षण
तत्र' खुरिणोः द्विविधाः-ग्रामचरा अरण्यचराश्चेति। 'आ ऐ' ग्रामचरा अश्वगर्दभादयः। 'ख' अरण्यचराः गवयहरिणादयः। तत्र नाम्ना विशेषतो ज्ञेयाः। नखिनोऽपि ग्रोमारण्याश्चेति द्विविधाः। 'छ' ग्रामचराः श्वानमार्जारादयः। 'ठ' अरण्यचराः
१. तुलना- के. प्र. र. पृ. ६२-६३। प्र. कौ. पृ. ६। चं. प्र. श्लो. २६४-२६६ । के. हो. ह. पृ. ८६। २. “अथ चतुष्पदयोनिः” इति पाठो नास्ति-ता. मू.। ३. तुलना-च. प्र. श्लो, २६७-३०६ । ज्ञा. प्र. पृ. २३-२४ । भु. दी. पृ. १५-१६ । स. वृ.सं. पृ. १०५२। के. हो.
पृ. ८७। ४. विशेषः-क. मू.।
केवलज्ञानप्रश्नचूडामणि : १०३