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सभी संसारी जीवों का कम-से-कम अक्षरज्ञान का अनन्तवाँ भाग तो सदा उद्घाटित ही रहता है। 119. मति-श्रुत
जत्थ मइनाणं तत्थ सुयनाणं । जत्थ सुयनाणं तत्थ मतिनाणं ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1939]
एवं [भाग ? पृ. 511] . - बृहत्कल्पवृत्ति सभाष्य 1॥ जहाँ मतिज्ञान है, वहाँ श्रुतज्ञान है और जहाँ श्रुतज्ञान है; वहाँ मतिज्ञान है। 120. द्विविधज्ञान
दुविहे नाणे पन्नते-तंजहा - पच्चक्खे चेव, परोक्खे चेव ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1940]
- स्थानांग - 220/60 ज्ञान दो प्रकार का कहा है-प्रत्यक्ष और परोक्ष । 121. मिथ्यादृष्टि नाणा फलाभावाओ, मिच्छद्दिद्विस्स अन्नाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1945]
- विशेषावश्यकभाष्य 115 ज्ञान के फल (सदाचार) के अभाव में मिथ्यादृष्टि का ज्ञान अज्ञान
122.. द्रव्यश्रुत दव्वसुयं जे अणुवउत्तो।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1949]
- विशेषावश्यकभाष्य 129 जो श्रुत उपयोगशून्य है, वह सब द्रव्यश्रुत है। अभिधान राजेन्द्र कोष में. सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 87