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86. स्वयं को जीतो सव्वमप्पे जिए जियं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1815]
- उत्तराध्ययन 936 एक अपने आपको जीत लेने पर सबको जीत लिया जाता है। 87. दुर्जेय आत्मा दुज्जयं चेव अप्पाणं ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1815]
- उत्तराध्ययन 936 आत्मा दुर्जेय है अर्थात् उसपर विजय पाना बड़ा कठिन है। 88. बाह्य संग्राम किं ते जुझेण बज्झओ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1815]
- उत्तराध्ययन 935 बाहरी युद्ध से तुझे क्या प्रयोजन ? 89. आत्मजेता सुखी अप्पाणमेव अप्पाणं जइत्ता सुहमेहए ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1815]
- उत्तराध्ययन - 9/35 आत्मा को आत्मा के द्वारा ही जीतकर मनुष्य सुख पाता है। 90. आत्मयुद्ध अप्पाणमेव जुज्झाहि।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1815]
- उत्तराध्ययन 935 आत्मा के साथ ही युद्ध करो।
अभिधान राजेन्द्र कोष में; सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 79