________________
83. कर्म - युद्ध
सद्धं नगरं किच्चा, तव-संवरमग्गलं । खंति निउणंपागारं तिगुत्तं दुप्पहं सयं ॥ धणुं परक्कमं किच्चा जीवं च इरियं सया । धिरं च केयणं किच्चा, सच्चेणं पलिमंथए । तवनारायजुत्तेणं, भेत्तूणं कम्मकंचुयं । मुणी विगयसंगामो भवाओ परिमुच्चइ ||
,
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1814] उत्तराध्ययन 9/20-21-22
मुनि श्रद्धा को नगर, तप एवं संवर को अर्गला और क्षमा को त्रिगुप्ति से सुरक्षित एवं अपराजेय सुदृढ परकोटा बनाए। फिर पराक्रम को धनुष, ईर्यासमिति आदि को उसकी प्रत्यञ्चा अर्थात् डोर तथा धृति को उसकी मूठ बनाकर उसे सत्य से बाँधे । तपरूपी लोह बाणों से युक्त धनुष के द्वारा कर्मरूपी कवच को भेद डाले । इसप्रकार संग्राम का अन्त कर के अन्तर्युद्ध विजेता मुनि संसार से मुक्त हो जाता है।
84. अन्तर्युद्ध
-
-
विगइ संगामो भवाओ परिमुच्चई ।
उत्तराध्ययन 9/22
विकारों के साथ किया जानेवाला संग्राम संसार से मुक्ति दिलाता है।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1814]
85. आत्म-विजय
जो सहस्सं सहस्साणं संगामे दुज्जए जिणे । एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ |
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1815 ] उत्तराध्ययन 9/34
जो पुरुष दुर्जेय संग्राम में दस लाख योद्धाओं को जीतता है इसकी अपेक्षा वह एक अपने आपको जीत लेता है, यह उसकी परम विजय है ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-478
-
-