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ज्ञानी 79. न प्रिय, न अप्रिय
पुरुष ही भोग का परित्याग कर सकते हैं ।
पियं न विज्जई किंचि, अप्पियं पि न विज्जइ ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1813] उत्तराध्ययन 9/15
महात्मा के लिए न कोई प्रिय होता है और न कोई अप्रिय होता है
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80. संशयात्मा
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1811] उत्तराध्ययन 9/3
चाहता है।
81.
संसयं खलु जो कुणइ, जो मग्गे कुणइ घरं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [ भाग 4 पृ. 1814] उत्तराध्धयन 9/26
साधना में सन्देह वही करता है, जो मार्ग में ही घर करना ( ठहरना )
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तप, धनुषबाण
तवनारायजुत्तेणं भेत्तृणं कम्मकंचुयं ।
श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1814] उत्तराध्ययन 9/22
तपरूपी लोह बाण से युक्त धनुष के द्वारा कर्म रूपी कवच को भेद
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डाले ।
82. शाश्वत निवास
. जत्थेवं गन्तुमिच्छेज्जा तत्थ कुव्वेज्ज सासयं । श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1814]
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उत्तराध्ययन 9/26
जहाँ जाना चाहते हो, वहीं अपना शाश्वत घर बनाओ ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 77