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44. अनमेल
णालस्सेणं समं सोक्खं ण विज्जासह निद्दया । ण वेरग्गं पमादेणं णारंभणे दयालुआ ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 1447] - निशीथभाष्य 5307
बृहदावश्यकभाष्य 3385 आलस्य के साथ सुख का, निद्रा के साथ विद्या का, प्रमाद (ममत्व) के साथ वैराग्य का और हिंसा के साथ दयालुता का कोई मेल नहीं है। 45. जागरूकता
जागरहा णरा णिच्चं, जागरमाणस्स वड्ढए बुद्धी । जो सुअइ ण सो धणो, जो जग्गइ सो सया धणो ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1447] - निशीथभाष्य 5303
बृहदावश्यकभाष्य 3283 मनुष्यों ! संदा जागते रहो, जागनेवाले की बुद्धि सदा वर्धमान रहती है। जो सोता है, वह सुखी नहीं होता। जागृत रहनेवाला ही सदा सुखी रहता
है।
46. श्रुतज्ञान, सुप्त-स्थिर
सुअइ सुअंतस्स सुअं संकिअ खलिअं भवे पमत्तस्स । जागरमाणस्स सुअं, थिरपरिचियमप्पमत्तस्स ॥
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 1447] - निशीथभाष्य 5304
बृहदावश्यकभाष्य 3384 सोते हुए का श्रुतज्ञान सुप्त रहता है । प्रमत्त का ज्ञान शंकित एवं स्खलित हो जाता है। जो अप्रमत्तभाव से जाग्रत रहता है, उसका ज्ञान सदा स्थिर एवं परिचित रहता है।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 . 67.