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जो ज्ञानभ्रष्ट और दर्शन के विध्वंसक साधक हैं, वे स्वयं तो भ्रष्ट होते ही हैं। साथ ही दूसरों को भी भ्रष्ट करके सन्मार्ग से विचलित कर देते हैं। 454. नत, फिर भी ध्वस्त णममाणा वेगे जीवितं विप्परिणामेति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2763]
- आचारांग - 1/KAN91 साधक जिनाज्ञा-गुर्वाज्ञा के प्रति समर्पित होते हुए भी, संयमी जीवन को ध्वस्त कर देते हैं, बिगाड़ देते हैं । 455. सुखी जीवन, संयमभ्रष्ट पुट्ठा वेगे नियटृति जीवितस्सेव कारणा ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2763]
- आचारांग1/%A191 कुछ साधक कष्ट उपस्थित हो जाने पर केवल सुखी जीवन जीने के लिए संयम छोड़ बैठते हैं। 456. निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण निक्खंतं पि तेसिं दुण्णिक्खंतं भवति ।
- श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग + पृ. 2763]
- आचारांग - 1/KAN91
संयम छोड़ देनेवाले मुनियों का गृहवास से निष्क्रमण भी दुनिष्क्रमण .. हो जाता है। 457. धर्म-मार्ग दुष्कर
घोरे धम्मे । - - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 4 पृ. 2764]
- आचारांग - 1/6/4/192 धर्म का मार्ग बहुत ही कठिन है। . 458. आज्ञातिक्रमण
उवेह इणं अणाणाए ।
अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-4 • 171